सुख और दुख सिर्फ एक मानसिक अवस्था का नाम है। इससे ज्यादा और कुछ नहीं। इसका बड़ा हसीन और सुंदर उदाहरण हमें लोकतंत्र में दिखाई देता है। जब भी कोई चुनाव होता है, तो सभी पार्टियां अपने लक्ष्य दार भाषणों, नई योजनाओं, और नए वादों के साथ मैदान में आती हैं। उस में से किसी एक को सत्ता भी प्राप्त हो ही जाती है। सत्ता प्राप्त होने के बाद कौन तुम, कौन हम, कैसे बातें, कैसी योजनाएं, सब बंद डिब्बे में चली जाती हैं। लगभग सभी चुनावों की स्थिति यही है।
इसमें जनता का पक्ष पड़ी सूक्ष्मता से देखने की आवश्यकता है। पार्टी कोई भी जीते, जनता का एक पक्ष हमेशा खुश होता है और दूसरा पक्ष दुखी हो जाता है। जो खुश होते हैं, उनके पास खुश होने के अपने कारण होते हैं और जो बेचारे निराश होते हैं, उनके अपने कारण होते हैं। जब अपनी पार्टी सत्ता में हो तो महंगाई भी बड़ी सुख और शांति प्रदान करती हैं, जब अपनी पार्टी में विपक्ष में हो तो महंगाई और सताने लगती है। इससे यह धारणा और पुष्ट होती है कि सुख और दुख सिर्फ एक मानसिक अवस्था ही हैं।
लेकिन एक लोकतंत्र के लिए यह एक आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती है। जनता के लिए और लोकतंत्र की रक्षा के लिए सदैव साथ होना आवश्यक है, यही आदर्श स्थिति भी मानी जा सकती है। इसी में जनता का सुख और दुख दोनों हैं। किसी पार्टी और दल को चुनने के बाद जनता को विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करना चाहिए। इससे ही शक्ति का संतुलन बना रहेगा।
~पवन कुमार यादव
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