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रविवार, जून 01, 2025

कमरे में मैना

आज जैसे ही कमरे की सफाई हेतु रूम को खोला ही था कि इस नन्हे मेहमान का आगमन हो गया। ऐसा अक्सर ही हो जाता है। जब कभी कमरे का दरवाजा खुला रहता है। तो यह दरवाजे से अंदर आ जाती हैं। और खिड़की से बाहर निकल जाती हैं। इसी दिन के लिए कभी अल्ताफ राजा ने गया था कि
“चोरी की मोहब्बत में अक्सर यही होता है दरवाजे से जाते हैं खिड़की से निकलते हैं!” 
भोजपुरी में भी एक गीत इसी से संबंधित है, जिसके बोल हैं, 
दिलवा में घर तूं बनाइके, उड़ि जइबू ए मैना।
कृत्रिमिता में उलझा हुआ मनुष्य एक प्राकृतिक प्राणी है। जब कभी वह प्रकृति के समीप होता है। अथवा किसी बहाने से प्रकृति उसके पास आती है। तो उसका हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। न जाने वह कौन सी मजबूरी अथवा कारण है जो सदा ही उसे प्रकृति से दूर करते आ रहे हैं। 
वीडियो देखिए और मैना की क्रियाकलाप का आनंद लीजिए।
© Pavan Kumar Yadav 


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शनिवार, मई 17, 2025

व्याकुल जी


यूं तो हॉस्टल में विभिन्न प्रकार के दोस्त और हित-मित्र होते हैं। वे सभी देश के अलग-अलग हिस्सों से ताल्लुक रखते हैं एवं वहां की परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभिन्न समाजों से आने के कारण उनके व्यक्तित्व में भिन्न-भिन्न प्रकार की आदतें देखने को मिलती हैं, जिनके कारण कभी-कभी हमें हास-परिहास के अवसर प्राप्त होते हैं।
ऐसे ही हमारे हॉस्टल में एक ‘व्याकुल जी’ हैं। हालांकि उनका असली नाम व्याकुल नहीं है, परंतु नाम से आप उनकी विशेषता का अनुमान लगा सकते हैं। उन्हें हर बात में हमेशा जल्दी रहती है। यदि कहीं 2, 5 या 10 मिनट भी रुकना पड़ जाए तो वे बार-बार कहते हैं, “देर हो रही है, देर हो रही है, मुझे जाना चाहिए।” हालांकि उन्होंने आज तक यह स्पष्ट नहीं किया कि उन्हें जाना कहां है। ऐसा लगता है जैसे “देर हो रही है” उनका तकिया-कलाम बन गया है।
इसी कारणवश आज तक मैंने उन्हें किसी भी दोस्त अथवा सहपाठी के साथ खड़े होकर चाय पीते नहीं देखा। यह एक रिकॉर्ड है – शायद किसी ने भी उन्हें ऐसा करते नहीं देखा। जब इस विषय पर उनसे बात की जाती है तो उनके उत्तर प्रायः ऊल-जलूल होते हैं।
उनकी एक और विशेष आदत है – नैतिकता बस, जब भी कोई हमारे दरवाज़े पर आता है तो हम अंदर से ही आवाज़ देकर उसे बुला लेते हैं: “आइए, बैठिए, पानी लीजिए” आदि, अर्थात किसी भी प्रकार से उसका अभिवादन करते हैं। परंतु जब व्याकुल जी के दरवाज़े पर कोई आता है तो वे स्वयं ही उछल कर बाहर आ जाते हैं और मुस्कुराते हुए अपने दरवाज़े पर कुंडी लगा देते हैं।
शुरुआती दिनों में यह बात मेरी समझ में नहीं आती थी। एक दिन किसी मित्रों की सभा में किसी ने उनके विषय में चर्चा छेड़ दी। वहीं से मामला गर्म हो गया और सभी के उपहास का विषय बन गया।
मेरा उनसे अथवा किसी और से कोई बैर नहीं है, न ही किसी को अपमानित करने का उद्देश्य है। यह तो केवल एक हास्य का प्रसंग है, जिसका हम सभी बराबर आनंद लेते रहते हैं।
© पवन कुमार यादव 

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