हर बार की तरह इस बार भी दशहरा पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। रावण के बड़े-बड़े पुतले बनाए जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो भारी-भरकम शरीर वाले रावण की मुखाकृति हम पर अट्ठाहास करती हुई कह रही हो, कि तुम सब मुझे अपने हृदय से नहीं निकाल पाओगे। मैं यूं ही हर वर्ष आऊंगा। हर वर्ष जलाओगे। लेकिन मुझे मार नहीं पाओगे। हमेशा वह जलकर राख बनेगा।
अगली बार पुनः उसी सम्मान के साथ दोबारा खड़ा होकर हमारी नादानियां पर ठहाका लगाते हुए पूछेगा - मैं अधर्मी, अन्यायी, पथभ्रष्ट, राक्षस कुल का अवश्य हूं, पर मुझे मारने वाली लाखों-करोड़ों की भीड़ में क्या कोई राम है? या कोई ऐसा जिसमें राम जैसी शक्ति, सामर्थ्य और पुरुषत्व हो। हम निरुत्तर हो जाते हैं! इस आत्मग्लानि से बचने का एक रास्ता है! हमें अपनी भाषा में थोड़ा परिवर्तन करने की आवश्यकता है। यदि हम आम-जन से पूछे कि दशहरा का उद्देश्य क्या है, या हमें अपने अंदर क्या परिवर्तन करना चाहिए? इसका जवाब एक नई नपी-तुली सीधी और सपाट भाषा में देता हुआ यही कहेगा, कि सबसे पहले ‘अपने अंदर के रावण को मारो’ और अगर कोई बौद्धिक व्यक्ति है तो वह इसे अभिधात्मक रूप में कहेगा कि ‘रावण को मारने का अर्थ अपने अंदर की बुराई को मारो!’ हजारों वर्षों से हम रावण को जलाते आ रहे हैं और आने वाले हजारों वर्ष तक जलाते रहेंगे। हम भाषा में एक सामान्य सा परिवर्तन करके समाज को एक सकारात्मक दिशा दे सकते हैं।
कैसे?
आज से ‘अपने अंदर के रावण को मारो’ की बजाय ‘अपने अंदर के राम को जीवित करो’ कहने की परंपरा का विकास करना चाहिए।
जैसे रावण बुराई का प्रतीक है और वह सभी के अंदर मौजूद है। ठीक उसी प्रकार राम अच्छाई के प्रतीक हैं वह भी सभी के अंतर्मन में स्थापित हैं, बस जरूरत है तो उनको हमें फलने-फूलने का मौका देने की। जिससे समाज के आत्मिक विकास को सकारात्मक दिशा मिलेगी।
आपसे अनुरोध है कि इस बार आप भी ‘अपने अंदर के राम को जीवित करें!’ तभी का दशहरा सफल होगा।
दशहरा की अनंत शुभकामनाएं।
- पवन कुमार यादव।
2 टिप्पणियां:
Nice Bhaiya
धन्यवाद
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