उदाहरणार्थ यदि किसी बालक को बाल्यकाल में यह सिखाया जाये कि ‘सीधा पेड़ मत बनो उसे हर कोई काटता है!’ तो उससे यह देश अथवा स्वयं उसके पालनकर्ता यदि वफादारी की उम्मीद रखें तो यह कहीं से भी उचित नहीं होगा।
देश की वर्तमान भौतिक स्थिति को देखकर मेरा मित्र इसके दुष्परिणाम स्वरूप आज उन बातों का जिक्र किया जिसका मुझे कभी एहसास तक नहीं था।
“...भाई! वर्तमान परिदृश्य हमारे देश की नैसर्गिक स्थिति है, जिसे बचपन में समझना कठिन था!”
“...नहीं यार..! यदि तब ऐसी किसी दुर्व्यवस्था की स्थिति होती तो तुम्हारी अम्मी पहले ही लोगों से मिलने व बात करने के लिए मना कर देती! यह आज ही क्यों?”
जो प्रजातंत्र अपनी प्रजा के उचित अधिकारों के हनन पर उठती तर्जनी को बर्दाश्त कर ले, तो भविष्य में वह केवल ‘तंत्र’ रह जाता है और इस विलोप का जिम्मेदार वह स्वयं होता है।
मीडिया इसका एक महत्वपूर्ण अंग है या यूं कहें कि यह शासन सत्ता और जनता के बीच की इकाई है। सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने का दायित्व इसी पर है। किसी एक पक्ष का मेहमान या मेंजबान बनने से असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो इस की कमियों का एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अपराधों को विभिन्न वर्गों (जाति) में वर्गीकृत करके उसे श्रृंगारिक ताज की तरह से पेश किये जाने की प्रथा का प्रचलन इन्ही की देन है।
प्रजातंत्र के रक्षकों के लिए संविधान सिर्फ एक ढाल बनकर रह गया है जो समय-समय पर इन्हें सत्य पर असत्य की जीत दिलाता है। ये लोग भाषा की संयमता पर भी सिर्फ घड़ियाली आंसू बहाते हुए एक-दूसरे पर आक्षेप लगाते है।
इतना ही नहीं जब भी मंच से कूड़ो का ढेर प्रसारित किया जाता है तो इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि एक रोटी की छीना-झपटी के लिए नीचे चार छः भूखे कुत्ते अवश्य हो और इन्ही में से कुछ ‘अंधों में काना राजा’ टाइप के लिए बंद कमरों में रोटी की व्यवस्था की जाती है परंतु इनके काम में थोड़ी भिन्नता यह रहती है कि इन्हे अपना पूरा दिन ‘भगवद्-भजन’ में काटना होता है।
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