बुधवार, फ़रवरी 28, 2018

देश और नागरिक


जिस तरह से देश अपने नागरिकों से उम्मीद लगाये बैठा है। उसी तरह एक देश की भी नागरिकों के प्रति कोई न कोई जिम्मेदारी अवश्य है। यदि यह दोनों एक दूसरे के पूरक नहीं है तो दोनों एक दूसरे के लिए बेकार है। यदि देश कभी भी हमारी देशभक्ति पर उंगली उठा सकता है तो हम भी उस देश से नागरिकों के प्रति दी गई आवश्यक जिम्मेदारी की अपूर्णता पर प्रश्न चिन्ह लगा सकते हैं। परंतु इस अपूर्णता की जिम्मेदारी नागरिकों पर मढ़ दी जाती है क्योंकि देश एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। कहने को तो यह सिर्फ एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है परंतु नागरिकों के हाथों में कितने अधिकार दिए गए हैं जिससे वो किसी भी प्रकार की क्षति पूर्ति को पूर्ण कर सके। कहने को तो लोकतंत्र में नागरिक सब कुछ होता है। उसे अपने कार्यों के लिए उसे अपना समय बर्बाद करते हुए पांच से दस दिन तक धरने देना पड़ता है, पुलिस के डंडे खाने पड़ते है, आंसू गैस छोड़ी जाते हैं और न जाने कैसी कैसी यातनाएं सहनी पड़ती है। इसके बाद भी कोई उम्मीद नहीं होती। जिससे यह लगे कि हमारा आंदोलन सफल हो गया है। जो देश अपने देश के बेरोजगारों को नौकरी, गरीबों को दो वक्त की रोटी और बच्चों को निशुल्क शिक्षा तक नहीं दे सकता, उससे हम और किस तरह की उम्मीद कर सकते हैं। क्योंकि यह प्रजातंत्र है इसलिए इसकी जिम्मेदारी भी नागरिकों के सिर पर डाल दी गई है।

नागरिक यहां का राजा होते हुए भी हाशिये पर है और जिन्हें हम नौकर और चौकीदार बनाकर देश की रक्षा तथा नागरिकों के सम्मान की रक्षा के लिए चुने थे उनके पास अपने मालिकों के लिए समय नहीं है। ऐसा चौकीदार जो खुद को सर्वश्रेष्ठ चौकीदार बताता है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि वह अहंकारी हैं। वह अपने पद का सिर्फ और सिर्फ दुरुपयोग ही कर सकता है।

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