शनिवार, सितंबर 14, 2019

हिन्दी दिवस

चौदह सितंबर ही वह तिथि है, जिस दिन हिन्दी को देवनागरी लिपि के साथ भारतीय संविधान में स्थान दिया गया था। जिसके कारण इस दिन को हम सभी हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं। यह तो हुई साधारण सी बात। जिससे लगभग हर भारतीय परिचित है। पूरे भारत के लगभग एक तिहाई से भी अधिक हिस्से में बोली जाने वाली हिंदी, अब एक विश्वस्तरीय भाषा बन गई है।

हिंदी संस्कृत के सर्वाधिक करीब है, जिससे हम यह भी मान सकते हैं कि जब से संस्कृत का अस्तित्व सामने आया, तभी से हिंदी भी उसमें कुछ संकेतों के साथ उपस्थित हुई। भारतीय विद्वानों ने हिंदी को केवल एक हजार वर्ष पुरानी भाषा ही माना है जो मुझे बिल्कुल भी प्रासंगिक नहीं  लगता है। शायद वे भारत की अन्य बोलियां अथवा क्षेत्रीय भाषाओं के साथ समन्वय दिखाने के प्रयत्न में ऐसा कर गए हो! परंतु उनके मतों को अस्वीकार करना उस पर टिप्पणी करना मेरे लिए सर्वथा अनुचित होगा। वे सदैव मेरे लिए पूजनीय रहेंगे।
वैदिक काल से ही हिंदी अंश-अंश उभर कर सामने आती रही। इसका वर्तमान रूप एक चरणबद्ध प्रक्रिया का परिणाम है, और वर्तमान रूप आज से सात सौ वर्ष पूर्व ही आमिर खुसरो के काव्य में प्रकट हो चुका था। खुसरो की ही काव्य-भाषा को आधुनिक रुप देने में भारतेंदु हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद जी का योगदान सर्वाधिक उल्लेखनीय है। आधुनिक युग हिंदी भाषा के अस्तित्व के लिए चुनौती बना हुआ है। बड़े-बड़े चिंतक विचारक इसे बचाने का पुरजोर प्रयास भी कर रहे हैं। वे कितने सफल होंगे, यह तो अभी नियति के गर्भ में है। भाषा का एक यह भी गुण है परिवर्तनशील होना और वह लगातार होती ही रहेगी। जब हम उसे व्याकरणबद्ध अथवा किसी सांचे में बांधने का प्रयत्न करेंगे तो यह गति और भी अधिक तीव्र हो जाएगी। उसमें और तेजी से परिवर्तन होने शुरू हो जाएंगे। हिन्दी के विषय में भी यही सत्य है। 
हम सभी मानव हैं तो स्वाभाविक रूप से उसके गुणों से भी हम प्रभावी होंगे ही। हमें जो पसंद है उसे हम बांधने की पुरजोर कोशिश करते हैं। हम यह चाहते हैं कि यह हमेशा ऐसा ही बना रहे और इसी कारण ज्यादातर भारतीय नवयुवक प्रेम में असफल हो जाते हैं क्योंकि वह अपने प्रेमी को स्वतंत्र छोड़ने की बजाय एक मापदंड में बांध देते हैं।
ठीक यही बात हिंदी-भाषा के ऊपर भी लागू होती है। हिन्दी के साथ भी कुछ इसी तरह हो रहा है। हम उसे एक संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की प्रति-मूर्ति में स्थापित कर चुके हैं और उसे पैमाना मानकर,.हम आज के स्वरूप का चिंतन करते हैं। इस चिंतन में हिंदी का एक अलग ही रूप दृष्टिगोचर होता है। आज की दृष्टि में कहा जाए तो हिन्दी का एक भयावह रूप हमारे सामने है। जो दिन प्रतिदिन अत्यधिक विकराल होता जा रहा है। इसके आदर्श स्वरूप के रूप में हमारे समक्ष ‛बाणभट्ट की आत्मकथा’ है। जिसे हम हिंदी का एक मानक रूप मान सकते हैं। इसकी तुलना किसी वर्तमान समय के उपन्यास से करते हैं, तो पाते हैं कि उपन्यास में अपेक्षाकृत अंग्रेजी के शब्दों की भरमार है। हालांकि उनकी लिपि ज्यादातर देवनागरी ही है। हिन्दी भाषा में अग्रेंजी की अधिकता होने के कारण, एक अलग तरह की भाषा एवं एक अलग तरह की गद्य शैली प्रचलन हो गया , जिसे ‛हिंग्लिश’ कहा जाने लगा है। हिंग्लिश दो शब्दों के मेल से बना है। हिन्दी का ‛हिं’ और इंग्लिश का ‛ग्लिश’।  यह दशा सिर्फ हिन्दी के साथ ना होकर भारत की सभी बोलियों और भाषाओं की हुई है। जबकि भारत सरकार के साथ-साथ बड़े-बड़े विद्वान हिन्दी की उन्नति की दिशा में प्रयत्नशील हैं। इसके बावजूद यह एक अलग ही ढर्रे पर चल निकली है। इसके लिए मुख्य रूप से भारत का वो भी क्षेत्र जिम्मेदार है जो हिन्दी-भाषी नहीं है। जब कभी हिंदी के उत्थान की बात की जाती है। तो इसमें उनका विरोध मुखर हो उठता है। उनकी सभ्यता और संस्कृति पर कुठाराघात होने लगता है। लेकिन जब वे स्वयं अंग्रेजी को बढ़ावा देते हैं तो इससे कौन सी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा हो जाती है। उन्हें यह समझना चाहिए कि जितना है खतरा उन्हें अंग्रेजियत से है उतना हिन्दियत से नहीं।
हिन्दी ही क्यों? यह एक साधारण सा प्रश्न है! पूरे भारत में क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का आदान-प्रदान होगा और दोनों भाषाएं समृद्ध होंगी। उनकी शब्द क्षमता में बढ़ोतरी होगी। सबसे सुखद बात यह है कि हिन्दी हमारी सभ्यता और संस्कृति का वहन करने में सक्षम है। ये तो सच है कि भाषा की अपनी गति और अपनी दिशा होती है। परंतु प्रयत्न करने में क्या बुराई है।
हिन्दी की समृद्धि के लिए बहुत से विद्वान प्रयासरत हैं , परंतु उनका प्रयास व्यापक और सामूहिक ना होकर ज्यादातर व्यक्तिगत होता है। जिससे वांछित परिणाम की प्राप्ति नहीं हो पाती है।
अनादिकाल से आदिकाल होते हुए आधुनिक काल तक के भारतीय ऋषियों, गुरूओं एवं मूर्धन्य विद्वानों को मेरा शत-शत प्रणाम है। जिन्होंने अपने कर्तव्यों का पूर्णतः निर्वहन करते हुए वर्तमान की जिममेदारी हमारे कन्धों पर डाल कर आश्वस्त हो गयें हैं कि उनके द्वारा जलायी गयी मशाल को हम अपने आने वाली पीढ़ी के सुरक्षित हाथों में सौंप देंगे। जिससे हिंदी-भाषा उत्तरोत्तर-उत्थान के पथ पर अग्रसर होगी।

पूरे हिंदुस्तान का मान है हिन्दी!!
हर भारतीय की पहचान है हिन्दी!!
जो जोड़े जन-जन के हृदय को,
उस एक सूत्र का नाम है हिंदी!!

-पवन कुमार यादव।

1 टिप्पणी:

Awanish Pandey ने कहा…

बहुत ही जबरदस्त लेख भाई पवन