"आज सुबह तुमने मुझे जगाया क्यों नहीं!"
अभी वह उससे लगभग दस मीटर दूर ही थी। जब तक वह उसके समीप पहुँचती, उसकी प्रतिक्रिया आ चुकी थी।
शेखर सफाई देते हुए बोला,
"आज भोर में उठकर अचानक बाहर जाना पड़ गया, इसलिए जगा नहीं पाया। हालांकि मुझे तुम्हारा बराबर ध्यान था, लेकिन काम ही कुछ ऐसा था कि मैं तुम्हें कॉल नहीं कर पाया।"
सुमन अधिकार जताते हुए पलटकर कहती है,
"ऐसा कौन-सा काम आ गया जो तुम्हारे लिए मुझसे ज़्यादा ज़रूरी हो गया?"
वह अपनी बात में थोड़ी नरमी लाते हुए कहता है,
"सुबह से तीन-चार घंटे लगातार बाइक चलानी पड़ी, इसलिए नहीं कर पाया।"
सुमन पिछले दिनों की बात याद दिलाते हुए कहती है,
"आज से पहले तो तुम कभी नहीं भूलते थे।"
शेखर अपने पिछले प्रयासों का हवाला देते हुए कहता है,
"इतने दिनों तक तो जगाया, एक दिन भूल गया तो इतनी बड़ी बात मत बनाओ।"
सुमन उसके किए गए कृत्य से हुई हानि स्पष्ट करते हुए कहती है,
"तुम्हें पता है, इसकी वजह से आज मेरी क्लास छूट गईं।"
शेखर अहं भाव में आकर बोला,
"अब इसका ठीकरा मेरे सिर पर मत फोड़ो। तुम्हें अलार्म लगा लेना चाहिए था।"
सुमन भी उसी लहजे में उत्तर देती है,
"ठीक है! आज के बाद मैं अलार्म लगाकर ही सोऊँगी। कम से कम वो बिज़ी तो नहीं होगा”
=> इनके बीच का संवाद यहीं पर खत्म तो हो जाता है। परंतु भावों की प्रवणता से ऐसा लगता है जैसे दोनों के भीतर कहीं कुछ टूट रहा हो! छूट रहा हो!
संदर्भ:-यंत्रों के साथ रहते रहते मनुष्य भी बिल्कुल यंत्रवत हो गया है। उसके भीतर भी यंत्रों की सी-जड़ता व्याप्त होती जा रही है। इस पर किसी का एकाधिकार नहीं है। सब कुछ समय की गति निर्धारित करती है।
© Pavan Kumar Yadav
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