मंगलवार, जून 09, 2020

अन्तर्भाव- कविता

हे ईश्वर!
मुझे विशालता दो इतना कि,
ढँक सकूँ मैं पूरे संसार को।
और गहराई दो इतना कि,
समाहित हो सब कुछ मेरे ही अंदर।
और सामर्थ्य दो इतना कि,
उठा सकूं भार मैं सब के दुखों का।
और विस्तार दो इतना कि,
प्रत्येक वस्तु मेरी परिधि में हो।
संपूर्ण मानवता का एक लघु प्रतिनिधि,
प्रार्थना कर रहा है आपसे।
संभवतः चुनौती दे रहा है,
आपकी सत्ता को।
उस 'अज्ञात' को चुनौती देना,
मानवीय अज्ञानता का बोधक है।
अज्ञानता अहंकार की जननी है।
हे प्रभु! क्षमा करिए,
मुझे और मेरे धृष्ट मन को।
मैं अपनी प्रार्थना वापस लेता हूं,
इसलिए नहीं कि यह अस्वाभाविक है।
बल्कि मेरी सीमाएं निश्चित है।
एक अकिंचन निवेदन है कि,
मत दो मुझे यह लघु विशालता,
न ही ये छिछली गहराई,
नहीं चाहिए मुझको सीमित विस्तार,
जिसमें प्रत्येक संसार मेरी परिधि में हो।
बस केवल इतना कर दो भगवान...
कि मैं प्रत्येक वस्तु की परिधि में समा जाऊं।
इससे शायद मेरा अस्तित्व जीवित हो उठे।

© पवन कुमार यादव



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