मंगलवार, जून 14, 2022

कबीर : विराट व्यक्तित्व


महात्मा कबीर दास जी

भारतीय संत परंपरा में कबीर दास जी का आविर्भाव एक विराट व्यक्तित्व के रूप में हुआ। व्यक्तित्व की यह विशालता उन्हें एक दिन में नहीं प्राप्त हुए थी। जन्म काल से लेकर अंत समय तक वे हमेशा संघर्ष की कसौटी पर स्वयं को कसते रहे। इन परिस्थितियों को नियति ने उनके जीवन के लिए ही चुना था। वह वर्तमान दृष्टिकोण से देखने पर अत्यधिक कठोर लगतीं हैं। उस काल में तो ये सब कल्पनातीत लगतीं रहीं होंगी। कबीर के पिता अज्ञात थे। जाति निकृष्ट थी। उनके लिए प्रत्येक मार्ग बाधक ही था। उस समय का समाज बेड़ियों से कम नहीं था। जो सदैव मार्ग अवरूद्ध करने को तत्पर था। लेकिन इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ा।

उन्होंने उस समय के सर्वश्रेष्ठ गुरु 'रामानंद' को विवश कर दिया, अपना शिष्य बनाने के लिए। रामानंद का शिष्य बनकर, कबीर उस ऊंचाई को प्राप्त हुए, जहां पहुंचना बड़े-बड़े गुरुओं का स्वप्न होता है। वह चाहते तो हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहते। उनके पास पर्याप्त बहाने थे। लेकिन वो इन्हें अपनी ढ़ाल बनाने की बजाय भाल बनाए और वीरता पूर्वक इस भवसागर का सामना किया। दुनिया में ऐसी कोई ताकत नहीं थी जो उनके व्यक्तित्व को खंडित कर सके। जबकि सामना उन्होंने बारी-बारी से सबका किया।

गर्व और अहंकार में बड़ी पतली विभाजक रेखा होती है। जरा सा फिसले तो बात बिगड़ सकती है। कबीरदास जी अपने इष्ट के संबंध में कहते हैं।


कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर ,

पाछै लागै हरि फिरै ,कहत कबीर कबीर।


कबीरदास ने यह पंक्ति बड़े गर्व, प्रेम और माधुर्य भाव से प्रकट की है। उनके कहा है कि कबीर के पीछे-पीछे ईश्वर चल रहे हैं। उनके व्यक्तित्व की विराटता ऐसी है ही। तभी तो कबीर इतने प्रासंगिक हैं।

बिना रस, छंद, अलंकार के ज्ञान के ऐसी शब्द व्यंजना अद्भुत है। एक तरफ तो वह स्वयं को अनपढ़ क्या, कलम स्याही तक से दूर बता देते हैं। दूसरी तरफ उनके काव्य अभिव्यंजना लयबद्ध पदों का संयोजन और अनूठी शैली आश्चर्य की सीमा से परे हैं।

उनके उपमान भी सबसे अलग और अनूठे हैं। सूर्य और चन्द्र को नाड़ियां अथवा हठ योग प्रदर्शित किए हैं। जो कमल सुंदरता और कोमलता का मापदंड हुआ करता था। वह स्वयं बुझा-बुझा सा है।

'काहे री नलिनी तू कुम्हलानी'

जिस मृग की महत्ता उसकी आंखों और चाल से होती थी। अब वही भीतर के प्रकाश की ओर संकेत कर रहा है। 


कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे बन माहि।

ऐसे घटि घटि राम हैं दुनिया देखे नाही।।


ऐसे उदाहरणों से उनका काव्य काफी समृद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है मानो यह सब अनवरत रूप से ही उनके काव्य में समाहित हो आया है।

एक घटना अक्सर प्रसंग में आती है। जब वह अपनी पत्नी को लेकर स्वयं दुकानदार के पास जाते हैं। उसके बाद की कहानी से तो सभी परिचित हैं। यह बात उनके क्षमता और लोई के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा का प्रमाण है। ऐसा सिर्फ कबीर ही कर सकते हैं।

इस संसार में एक पिता के लिए उसका पुत्र सबसे प्यारा होता है। सारे लोग यही सोचते हैं कि कितना धन और धर्म संचित कर दें। जिससे हमारा पुत्र जीवन भर आराम से रह सके। लेकिन कबीर कभी धर्म विरुद्ध आचरण स्वीकार नहीं किए। फिर उनके समक्ष कोई भी हो। उन्होंने अपने पुत्र को बड़े तीखे स्वर में फटकारा। 


बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल,

राम नाम को तजि करि घर ले आया माल ।  


सद्गुरु की तीखी फटकार सब को अमरत्व प्रदान कर सकती हैं। जैसा कि कबीर ने अपने पुत्र के संबंध में कह कर उसे अमरत्व प्रदान किया।

कबीर दास जी का जीवन हमेशा संघर्षपूर्ण रहा। उनकी परिस्थितियों पर दृष्टिपात करते हुए भाव आ रहे हैं कि यह सब विशेष रूप से उन्हीं के लिए नियत ने निर्धारित किया था।

सामान्य व्यक्ति के पास इन चुनौतियों से उबरने की सामर्थ्य नहीं है। यह समस्त मानव-जगत का संचित पुण्य-प्रताप है जिसके कारण कबीर की वाणियों, भावों और विचारों को अध्ययन करने का आनंद मिल रहा है। कबीर को इस बात से रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता होगा कि उनकी वाणियों का कोई किस प्रकार उपयोग कर रहा है! यदि हमारे पास यह अमूल्य निधि नहीं होती तो, जो दो चार लोग इसके मार्गदर्शन से अपने लक्ष्य को प्राप्त हुए, उनके भटकने की पूरी संभावना होती।


कबीरदास जी द्वारा रचित 'साखी' का एक दोहा 

आज 'कबीर जयंती' के दिन ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हम सभी को कबीरदास जी जैसा व्यक्तित्व प्रदान करें।

© पवन कुमार यादव


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