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बुधवार, फ़रवरी 28, 2018

देश और नागरिक


जिस तरह से देश अपने नागरिकों से उम्मीद लगाये बैठा है। उसी तरह एक देश की भी नागरिकों के प्रति कोई न कोई जिम्मेदारी अवश्य है। यदि यह दोनों एक दूसरे के पूरक नहीं है तो दोनों एक दूसरे के लिए बेकार है। यदि देश कभी भी हमारी देशभक्ति पर उंगली उठा सकता है तो हम भी उस देश से नागरिकों के प्रति दी गई आवश्यक जिम्मेदारी की अपूर्णता पर प्रश्न चिन्ह लगा सकते हैं। परंतु इस अपूर्णता की जिम्मेदारी नागरिकों पर मढ़ दी जाती है क्योंकि देश एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। कहने को तो यह सिर्फ एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है परंतु नागरिकों के हाथों में कितने अधिकार दिए गए हैं जिससे वो किसी भी प्रकार की क्षति पूर्ति को पूर्ण कर सके। कहने को तो लोकतंत्र में नागरिक सब कुछ होता है। उसे अपने कार्यों के लिए उसे अपना समय बर्बाद करते हुए पांच से दस दिन तक धरने देना पड़ता है, पुलिस के डंडे खाने पड़ते है, आंसू गैस छोड़ी जाते हैं और न जाने कैसी कैसी यातनाएं सहनी पड़ती है। इसके बाद भी कोई उम्मीद नहीं होती। जिससे यह लगे कि हमारा आंदोलन सफल हो गया है। जो देश अपने देश के बेरोजगारों को नौकरी, गरीबों को दो वक्त की रोटी और बच्चों को निशुल्क शिक्षा तक नहीं दे सकता, उससे हम और किस तरह की उम्मीद कर सकते हैं। क्योंकि यह प्रजातंत्र है इसलिए इसकी जिम्मेदारी भी नागरिकों के सिर पर डाल दी गई है।

नागरिक यहां का राजा होते हुए भी हाशिये पर है और जिन्हें हम नौकर और चौकीदार बनाकर देश की रक्षा तथा नागरिकों के सम्मान की रक्षा के लिए चुने थे उनके पास अपने मालिकों के लिए समय नहीं है। ऐसा चौकीदार जो खुद को सर्वश्रेष्ठ चौकीदार बताता है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि वह अहंकारी हैं। वह अपने पद का सिर्फ और सिर्फ दुरुपयोग ही कर सकता है।

रविवार, फ़रवरी 18, 2018

हमारा समाज और हमारी जिम्मेदारियां


समाज की परिभाषा व्यक्तियों का समूह न होकर इससे बिल्कुल उलट है। लेपियर के कथनानुसार “समाज मनुष्यों के एक समूह का नहीं बल्कि उनके बीच होने वाली अन्तर्क्रियाओं और उनके प्रतिमानों को ही हम समाज कहते हैं।”
यह परिभाषा वैज्ञानिक रूप से सही भी है। सिर्फ कुछ व्यक्तियों को मिलाकर हम समाज का निर्माण नहीं कर सकते। समाज की स्थापना के लिए हमें उनके बीच स्वाभाविक रूप से उत्पन्न सम्बन्धों पर गौर करना होगा। उदाहरण के तौर पर एक छोटा बालक जब घर पर होता है तो उसका सम्बन्ध एक बेटे और भाई का होता है, जब विद्यालय में होता है तो विद्यार्थी हो जाता है, खेल के मैदान में खिलाड़ी हो जाता है, दुकान पर ग्राहक हो जाता है और दोस्तों संग दोस्त हो जाता है। समाज इन्हीं सम्बन्धों पर निर्भर है। सामाजिक सम्बन्ध ही उसके प्राण हैं  न कि व्यक्ति विशेष का समूह।
विभिन्न तरह के विद्वानों ने समाज को विभिन्न तरह से परिभाषित किया है-
मैकाइवर और पेज के अनुसार “समाज रीतियों, कार्यविधियों, अधिकार व पारस्परिक सहायता, अनेक विभाजनों, मानव व्यवहार के नियंत्रणों तथा स्वतंत्रताओं की व्यवस्था है। इस सदैव परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और सदैव परिवर्तित होता रहता है।” इसके अलावा मैकाइवर ने समाज को परिभाषित करने के कई छोटे बिन्दुओं का भी उल्लेख किया है-
परस्पर सहयोगः- यह समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है क्योंकि सहयोग भावना ही एक सम्बन्ध को जन्म देती है। यदि किसी स्थान पर किसी को सहायता की आवश्यकता है तो एक सामाजिक प्राणी होने के कारण हमारा ये फर्ज बनता है कि हम उसकी यथावत मदद करें, अंजान ही सही एक सम्बन्ध तो स्थापित होगा।
अधिकारः- समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए जरूरी है कि लोगों को उनका अधिकार मिले। इसमें कुछ विशिष्ट लोग (ग्राम प्रधान, विधायक और संसद आदि) भी होते हैं जिन्हें ये अधिकार दिया जाता है कि वो अपने अधिकारों का प्रयोग करके लोगों के अधिकारों की रक्षा करें। गुलामी एवं दासता की भावना एक निम्न कोटि के समाज का परिचायक है। इसलिए समाज में अधिकार की महत्ता सर्वाधिक है।
इसके अलावा मैकाइवर ने कार्य प्रणालियों, स्वतंत्रता समूह तथा विभाग और मानव-व्यवहार के नियंत्रण के बारे में भी चर्चा की थी। ये सभी बिन्दु समाज की परिभाषा के ही अंग है।
समाज को समझने के लिए मोरिम गिन्सबर्ग की भी परिभाषा देख लेते हैं। उनके अनुसार “समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह है जो कुछ सम्बन्धों अथवा व्यवहार की विधियों द्वारा संगठित तथा उन व्यक्तियों से भिन्न है जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा बंधे नहीं हैं अथवा जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं।” गिन्सबर्ग ने भी समाज को सम्बन्धों का जाल कहा है। समाज में व्यक्तियों का अध्ययन केवल इसलिए किया जाता है क्योंकि व्यक्ति के बिना सम्बन्धों का अस्तित्व काल्पनिक है।
समाज में मुख्य रूप से कुल 10 धर्म है। जो पूरे विश्व में अपनी विशेषता के आधार पर फैले हुए है। जैसे- भारत है तो एक धर्म निरपेक्ष देश परन्तु मुख्य रूप से यहां की आबादी हिन्दू है। चीन का अपना अलग पारम्परिक धर्म है। जापान मुख्य रूप से शिंटो धर्म का पालन करता है। यूरोपवासी ईसाइयत को मानते हैं।

सभी धर्मों एवं उनके सम्प्रदायों का संक्षिप्त परिच -

ईसाईः- ईसाई धर्म के प्रवर्तक ‘ईसा मसीह’ थे। इसका जन्म 4 ई0पू0 येरूशलेम के निकट वैथलेहम नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम ‘जोजफ’ तथा माँ का नाम मरियम था। कहा जाता है कि इनकी माँ ने कुंवारेपन में ही ईसा मसीह को जन्म दिया और उनका नाम ‘यीशु’ रखा। ईसा मसीह को 33 ई0 में रोमन गवर्नर पोरियम ने सूली पर चढ़वाया था। एक जनश्रुति यह भी है कि मरने के तीसरे दिन ‘ईसा मसीह’ जिन्दा हो गये थे। पुनः तीसरे दिन वापस आकर अपने शिष्यों को उपदेश दिये थे। ईसाईयों  का प्रमुख चिन्ह ‘क्रास’ है। ईसाई त्रित्व में भरोसा रखते है। ईश्वर-पिता, ईश्वर-पुत्र (ईसा मसीह) और पवित्र आत्मा। इस धर्म प्रचलन सर्वाधिक यूरोप में है। पूरे विश्व में इनकी संख्या सर्वाधिक 2.2 अरब है। जो सम्पूर्ण मानव-जगत का 31.5 % है। ईसाई धर्म आगे चलकर कई सम्प्रदायों में बंट गया, जिसमें से प्रमुख रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेट, कोपिमिइस्म और आर्थोडाक्स है।

इस्लाम धर्मः- इसके संस्थापक हजरत मोहम्मद साहब थे। इसके पिता का नाम ‘अब्दुल्ला’ और माता का नाम ‘अमीना’ था। इनका जन्म 570 ई0 में मक्का में हुआ था। ‘कुरान’ इस्लाम का पवित्र ग्रंथ है। मोहम्मद साहब की मुत्यु के बाद इस्लाम भी दो सम्प्रदायों में बंट गया। पहले ‘सुन्नी’ जो  मोहम्मद साहब की वाणी एवं विचारों में भरोसा रखते थे, एवं दूसरे ‘शिया’  जो ‘अली’ के विचारों में भरोसा रखते थे। ‘अली’ मोहम्मद साहब के दामाद थे। लोग उन्हें उचित उत्तराधिकारी मानते थे। ईस्लाम की सबसे पवित्र जगह मक्का है। मक्का से मदीना के बीच की यात्रा को हज कहते हैं। इस धर्म के अनुयायियों का मानना है कि जीवन में एक बार हज यात्रा अवश्य करनी चाहिए। पूरे विश्व में ईस्लाम को मानने वाले करीब 1.6 अरब लोग हैं।

हिन्दू धर्मः- इस धर्म की शुरुआत के बारे में कोई प्रमाणिक तथ्य नहीं मिलते हैं, परन्तु यह शैव और वैष्णव धर्म का सम्मिलित रूप अवश्य है। शैव धर्म के कुछ अवशेष हड़प्पा सभ्यता से मिले हैं जिससे समय का लगभग अनुमान लगाया जा सकता है। वास्तव में ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति ‘सिन्धु’ से हुई है। ‘सिन्धु’ शब्द सिन्धु नदी के किनारे रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। कालान्तर में यह सिन्धु से हिन्दू में परिवर्तित हो गया। इसमें कर्मों के आधार पर व्यक्तियों को 4 भागों में बाँटा गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन चार वर्गों में कई प्रमुख जननजातियाँँ भी शामिल हैं। पूरे विश्व में हिन्दू 13.95%  हैं। जिनकी संख्या लगभग 1 अरब है।

बौद्ध धर्मः- बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध थे। इनका जन्म लुम्बिनी में हुआ था। इनके पिता का नाम शुद्धोधन तथा माता का नाम माया देवी था। इनके जन्म के समय जब राजा शुद्धोधन ने इनके भविष्य के बारे में जानकारी ली तब पता चला कि ये सन्यासी बनेंगे। महाराज ने इन्हें उत्तराधिकारी बनाने का हर सम्भव प्रयास किया। 16 वर्ष की अवस्था में शादी कर दी। इनका एक पुत्र भी था ‘राहुल’। भाग्य तो इनका दैवयोग से चल रहा था। इसलिए सारे प्रयास विफल हो गये। एक दिन गौतम बुद्ध अपने सारथी के साथ राज्यभ्रमण पर निकले । रास्ते में उन्हें एक बूढ़ा व्यक्ति, एक बिमार व्यक्ति, एक शव एवं एक सन्यासी दिखा। ये सारे दृश्य इन्हें इतना व्यथित किये कि ये सब कुछ छोड़कर सत्य प्राप्ति के लिए निकल गए। ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ‘लाइट ऑफ एशिया’ कहलाए जाने लगे। बौद्ध धर्म की प्रमुख पुस्तकें विनयपिटक, सूत्रपिटक और अभिधम्म पिटक एवं त्रिरत्न बुद्ध, धम्म और संघ है। बौद्ध धर्म का सबसे प्रिय त्यौहार वैशाख पूर्णिमा है। इसीदिन गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति एवं महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था। गौतम बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म भी दो भागों में (हीनयान और महायान) विभक्त हो गया। पूरे विश्व में बौद्ध धर्म को मानने वाले 37.6 करोड़ लोग हैं। जो 5.25% के बराबर हैं।

जैन धर्मः- जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर स्वामी ऋषभदेव थे। इन्होंने ही जैन धर्म की स्थापना की थी। स्वामी ऋषभदेव के बाद कुल एक-एक करके 24 तीर्थंकर हुए। 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। जिनके समय में जैन धर्म अपने चरम पर था और आज भी फलफूल रहा है। तत्कालीन समयाघात के कारण जैन धर्म भी दो भागों में बंट गया। पहला श्वेताम्बर तथा दूसरा दिगम्बर। सभी तीर्थंकरों की जीवनी भद्रबाहु रचित ‘कल्प-सूत्र’ में मिलती है। पूरे विश्व में जैन अनुयायियों की संख्या 42 लाख है।  
         इसके अलावा और भी धर्म और सम्प्रदाय है जैसे चीन का पारम्परिक धर्म (5.5% अथवा 40 करोड़), सिख धर्म (2.3 करोड़) और जापानी शिंटो धर्म (40 लाख)। विश्व समुदाय का एक बड़ा हिस्सा (15.35 प्रतिशत) नास्तिक है, जिसकी आबादी 1.1 अरब है।
सामाजिक कुरीतियों में सबसे ज्वलंत मुद्दा लड़कियों अथवा महिलाओं का है। आजादी के 70 बरस बाद भी उन्हें वो सम्मान, सुरक्षा और समानता नहीं मिल पायी। जिसकी वो अधिकारिणी हैं। यदि संवैधानिक रूप से चर्चा करें तो सारे अधिकार है परन्तु कहीं न कहीं ये पुरूषवादी समाज की सोच का ही नतीजा है जो उन्हें सिर्फ एक घरेलू कार्य करने वाली प्राणी के रूप में देखते हैं। बस इस बात से थोड़ी संतुष्टि जरूर मिलती है कि परिवर्तन जारी है। वो अपनी बौद्धिकता का प्रदर्शन हर क्षेत्र में कर रही है और सफल भी हो रही है। उन्हें अपने अधिकार की पहचान हो गयी है। हाल ही में न्यायालय द्वारा महिलाओं के पक्ष में एक स्वर्णिम फैसला सुनाया गया ‘तीन तलाक पर’। ये संकेत उनके अच्छे भविष्य की तरफ बढ़ाया गया एक छोटा सा कदम है पर लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई। अपने अधिकार के लिए उन्हें खुद लड़ना होगा। हम अपना सहयोग और समर्थन देकर उनका हौसला आफजाई कर सकते हैं।
भारत की पाँच हजार पुरानी सभ्यता होते हुए भारतीय समाज आज तक धर्म का मर्म नहीं समझ सका। यदि सभी धर्मों का उद्देश्य वर्चस्व की जंग को जीतकर शीर्ष स्थान पर काबिज होना है तो मैं आज ही इन धर्मों से किनारा कर लूँ। क्या मंदिर में फल चढ़ाने से अथवा मस्जिद में चादर चढ़ाने से ईश्वर प्रसन्न होगा? इससे केवल धर्म के ठेकेदारों का ही फायदा होगा। जो हम सभी की भावनाओं के साथ खेलते हैं। उन्होंने फतवा जारी किया और हम निकल पड़े एक दूसरे का खून बहाने। अगर उन्हें आपत्ति है तो खुद उतरें संघर्ष के मैदान में। कुछ तो इतने नीचे गिर गए हैं कि साधु, संत और बाबा जैसे वात्सल्यपूर्ण शब्दों का घोर अपमान किया। इन सब में वो दोषी तो हैं ही, उनके साथ हम भी उतने ही गुनाहगार हैं जो इनका समर्थन करते हैं। इक्कीसवीं सदी में भी लोग इन ठेकेदारों से चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं। कभी एकान्त में बैठकर शांतिपूर्वक चिंतन करें, अपनी-अपनी धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन कर विचार करें। उन बातों  को अपने जीवन उतारें। फिर देखिए ये दुनिया हमारी कल्पना से ज्यादा सुन्दर हो जायेगी।
ये तो बस उदाहरण है। इसके अलावा बालश्रम, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी कुप्रथाएं आज भी समाज में मौजूद हैं कहने को तो ये कानूनी रूप से गलत है परन्तु सिर्फ कानून बना लेने से वर्षों पुरानी रूढ़ियों को समाप्त किया जा सकता है? उसके लिए जरूरी है कि लोगों को इसके बारे में जानकारी दी जाए।
मेरे एक मित्र ईस्लाम मतावलम्बी है। उनके अनुसार आपकी हज यात्रा तबतक पूरी नहीं हो सकती जबतक आपके मोहल्ले के लोग खुश न हों। कहने का आशय यह है कि यदि आपका पड़ोसी भूखा सोया है तो आपकी हज यात्रा या फिर चारो धाम यात्रा व्यर्थ है। जहां तक इंसानों के बीच मतभेद की बात है तो यह संभव है। जब हमारे विचार एक दूसरे से मेल नहीं खाते तब छोटी-मोटी बातों को लेकर मनमुटाव सम्भव होना लाजिमी है। आधुनिक समय में इन छोटी-छोटी बातों का राजनीतिकरण करके धर्म एवं सम्प्रदाय में तोड़कर उनका इस्तेमाल किया जाता है। वर्तमान परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए ये कहा जा सकता है, कि नेताओं में भाव पक्ष नगण्य हो गया है। तभी तो वोटो का ध्रुवीकरण करते हैं। लोगों को तोड़ते हैं। पहले धर्म के नाम पर फिर धर्म को सम्प्रदाय के आधार पर। राजनीतिक दृष्टि से आज का समय बहुत महत्वपूर्ण है। यदि ऐसे समय पर हम कुछ कर न सके तो हमारी अगली पीढ़ी का भगवान ही मालिक है। इस समस्याओं से उबरने का एकमात्र उपाय ‘शिक्षा’ है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को शिक्षित किया जाय इस स्तर तक कि वो देश की राजनीति को समझ सकें, इस स्तर तक और इस समाज को विखण्डित होने से बचाने के लिए तत्परता से आगे आयें।
एक अच्छे समाज की स्थापना का पूरा भार युवाओं पर होता है। क्योंकि वो अपनी उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहाँ से वह वरिष्ठ नागरिकों को सहारा देने के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ी का निर्माण करते हैं। इसके साथ ही उनकी बुद्धि और भुजाओं में सामर्थ्य भी होती है, जिसके बल पर कई क्रान्तिकारी बदलाव संभव है। इसलिए स्वच्छ समाज निर्माण में ये एक शीर्ष इकाई साबित होते हैं।
    एक अच्छे समाज के संवहन के लिए एक अच्छे नेता की आवश्यकता होती है। नेता, लोगों की उम्मीद होते हैं और नेताओं का काम इनकी उम्मीद पर खरे उतरना होता है। एक नेता में सेवा भाव अत्यन्त आवश्यक है। एक अच्छा सेवक ही अच्छा नेता हो सकता है।
   धार्मिक गुरूओं  की बात करें तो पहला प्रश्न यह खड़ा होता है कि इनका कार्य क्या है? इनका कार्य सभी धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करना। हर प्रकार से मानवता की रक्षा करना। लोगों को धर्म और ईश्वर की सच्ची वाणी से अवगत कराना। किसी भी पथभ्रष्ट व्यक्ति को न्यायोचित ढ़ंग से सही रास्ते पर लाना। सर्वधर्म के प्रति सम्मान की भावना का स्थापन करना। धर्मगुरू समाज के अभिन्न अंग हैं। इसके बताए गये रास्तों एवं उपदेशों का लोग अक्षरशः पालन करते हैं।
मीडिया को राष्ट्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। मीडिया का काम है निष्पक्ष आलोचना करना। किसी भी घटना की तह तक पहूंच कर उसकी सच्चाई से लोगों को रूबरू कराना। यदि ये अपने मार्ग से विचलित हो जायेगी तो सच्चाई के अभाव में समाज के गलत रास्ते पर जाने की संभावना बढ़ जायेगी, जिसकी कीमत प्रत्येक सामाजिक इकाई को चुकानी पड़ेगी।

  समाज को चलाने के लिए सुसंगठित व्यवस्था का निर्माण किया जाता है, जिसे हम ‘संस्कार’ कहते हैं। सरकार का काम ऊँच-नीच, जाति-पाति, भेदभाव जैसी कुप्रथाओं पर प्रहार कर दूर करना। इसके साथ ही जो समाज के असक्षम लोग हैं उनके जीवन-यापन की व्यवस्था करना। रोजगार देना। किसी निर्बल पर अत्याचार न होने पाए। कोई दुखी न रहे। सभी के मानवाधिकार की रक्षा करना। इसके साथ ही समाज को संगठित करके एक सूत्र में बांधना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। समाज में आम जनता ही सबकुछ होती है। उपरोक्त सारी व्यवस्थाएं जनता द्वारा ही निर्मित है जिससे सभी कार्य व्यवस्थित ढ़ंग से हों। इसके लिए सभी को उपर्युक्त अधिकार दिये गये हैं। आम जनता से भी अपेक्षा की जाती है कि इस कार्य प्रणाली में बाधक बनने की बजाय उनकी सामर्थ्यानुसार मदद करनी चाहिए। किसी भी विभाग में अपने स्वार्थ के कारण हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ये पूरी व्यवस्था उन्हीं के लिए बनाई गयी है। विभाग के अधिकारियों पर भरोसा रखें। उनका सम्मान करें एवं उनके अच्छे कार्यों के लिए प्रोत्साहित करें।
   इस समाज में हर व्यक्ति अपना योगदान दे सकता है। इसका कोई भी हिस्सा बेकार नहीं है। एक विद्यार्थी समाज के निर्माण में अपना योगदान किस तरह दे सकता है? विद्यार्थी का काम है अध्ययन करना, वह अपने कर्मों का भली भांति निर्वहन करे बस हो गया समाज निर्माण में योगदान।

स्वच्छ समाज की स्थापना में महापुरूषों का योगदानः-

स्वामी विवेकान्नदः- पश्चिमी दुनिया में भारतीय जीवन शैली की अमिट छाप छोड़ने वाले महान चिन्तक एवं आध्यात्मिक गुरू, जिनके सम्मान में भारत प्रतिवर्ष ’12 जनवरी’ को युवा दिवस के रूप में मनाता है, युवाओं के आदर्श का पैमाना बन चुके हैं। युवाओं का परम लक्ष्य स्वामी जी जैसा आदर्श पुरूष वनना है। स्वामी जी ने 25 वर्ष की उम्र तक वेद-पुराण, बाइबिल, कुरान, धम्मपद, तनख, गुरुग्रन्थ साहिब, दास कैपिटल, पूंजीवाद, अर्थशास्त्र, संगीत और दर्शन की तमाम तरह की पुस्तकों का विधिवत् अध्ययन कर लिया था। स्वामी विवेकानन्द अपने कर्मों में भरोसा रखते थे और दूसरों को भी इस बात की प्रेरणा देते थे। उनका मुख्य उद्देश्य था-
    “उठो, जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको।“
इन्होंने 1893 में  भारत की ओर से सनातन धर्म पर (शीर्षक ‘शून्य’) ओजपूर्ण व्याख्यान दिया था। अध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन का पूर् अमेरिका और यूरोप में प्रसार किया। शिकागो के भाषण की मुख्य शुरूआती पंक्ति “मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों” का लोगों पर खास असर पड़ा। उनके द्वारा युवाओं को दिये गये संदेशों के कुछ बिन्दु-
बस वही जीते हैं जो दूसरे के लिए जीते हैं।
बह्माण्ड की सारी शक्तियाँ पहले से ही हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं, और रोते हैं कि कितना अंधकार है।
जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।
जिस समय काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय पर उसे करना ही चाहिए, नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है।
यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं वे वास्तव में जीते हैं।

महात्मा गाँधीः- महात्मा गाँधी अहिंसा के पुजारी थे। बचपन से ही इन्होंने सदैव सत्य बोलने की कसम खाई थी और पूरे जीवन भर इन मंत्रों का पालन करते रहे। भारत की आजादी की लड़ाई में गाँधी जी का महत्वपूर्ण योगदान था। इस सम्बन्ध में एक पंक्ति बहुत प्रसिद्ध है- “दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढ़ाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।”
तत्कालीन भारतीय समाज में छुआ-छूत एक बड़ी समस्या थी। वर्ण व्यवस्था के शूद्र को लोग अछूत मानते थे। जिसके फलस्वरूप गांधी जी उन्हें ‘हरिजन’ अर्थात ‘भगवान के लोग’ का नाम देकर इस कुप्रथा का अंत किया।

नेल्सन मंडेलाः- नेल्सन मंडेला का पूरा नाम नेल्सन रोलीहली मंडेला था। मुख्य रूप से उन्हें रंगभेद का पहला अनुभव उन्हें छात्र जीवन में ही मिल गया था। उनके शरीर का रंग काला होने के कारण ही उन्हें कई तरह के कार्यों से वंचित रखा जाता था। उन्हें सिर्फ काले होने के कारण इस समाज में सर झुकाकर चलना पड़ता था। ऐसा न करने पर जेल जाने की नौबत तक आ जाती थी। जीवन  के कड़वे अनुभव उनके व्यक्तित्व को और निखारते गये। उन्होंने जिस कालेज से स्नातक की शिक्षा पूरी की वह अश्वेतों के लिए एक विशेष कालेज था। अपने व्यक्तित्व के बल पर वो जल्दी ही कालेज में प्रसिद्ध हो गये। परिणामस्वरूप उन्हें कालेज से निकाल दिया गया। नेल्सन मंडेला के विचारों में गाँधी जी की छवि साफ दिखाई देती थी। संभवतः इसीलिए नेल्सन मंडेला और आन्दोलन एक दूसरे के पर्याय बन गये। पूरे देश में एक बड़े स्तर पर आन्दोलन खड़ा हुआ और तूफान के बाद की शान्ति निश्चित तौर पर एस नया सवेरा लेकर आयी जो मंडेला जी के पक्ष में था। इस आन्दोलन में उन्हें जेल भी हुई थी।
जेल जाने से पूर्व का उनका वक्तव्य- “अपने पूरे जीवन के दौरान मैंने अपना सबकुछ अफ्रीकी लोगों के संघर्ष में झोंक दिया। मैं श्वेत रंगभेद के खिलाफ लड़ा हूँ, और मैं अश्वेत रंगभेद के खिलाफ भी लड़ा हूँ । मैंने हमेशा एक मुक्त और लोकतान्त्रिक समाज का स्वप्न देखा है। जहाँ सभी लोग एक साथ पूरे सम्मान प्रेम और समान अवसर के साथ जीवन यापन कर पायेंगे। यही वो आदर्श, जो मेरे लिये जीवन की आशा बनी और में इसी को पाने के लिए जिन्दा हूँ। अगर कहीं जरूरत है कि मुझे इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मरना है तो इसके लिए भी पूरि तरह से तैयार हूँ।”
1990 में भारत सरकार की ओर से नेल्सन मंडेला को “भारत रत्न” से नवाजा गया। अपने उत्कृष्ट कार्य के लिए ही नेल्सन मंडेला और डी0 क्लार्क को संयुक्त रूप से नोबल पुरस्कार दिया गया। अपने लक्ष्य की प्राप्ति पर मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका को सम्बोधित करते हुए कहा कि “आखिरकार हमने अपने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त कर ही लिया। हम अपने आप से वादा करे कि हम अपने सभी लोगों को आजादी देगें, गरीबों से, मुश्किलों से, तकलीफों से, लिंगभेद से और किसी भी तरह के शोषण से। कभी भी इस खूबसूरत धरती पर एक दूसरे के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जायेगा। स्वतंत्रता का लुत्फ उठाइये। ईश्वर अफ्रीका पर अपनी कृपा बनाये रखे।”

सचमुच ऐसे महापुरुष सदियों में एक बार जन्म लेते हैं जो पूरे मानव समाज को एक नई दिशा देते हैं। समाज के प्रति मेरा अपना एक अलग दृष्टिकोण है। जिसके जरिये मैं पाठकगण को एक नई सोंच से अवगत कराना चाहूंगा। इस सोच  की शुरूआत विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं से करनी चाहिए। सिन्धुघाटी की सभ्यता, मेसोपोटोमिया की सभ्यता और बेबीलोन की सभ्यता में एक बात उभय थी। इस सभी सब्यताओं में मानव को अपने अस्तित्व को बनाये रखने का संकट था। इसकी लड़ाई प्रकृति से थी। वह आपदाओं, जानवरों और महामारियों आदि को मानव जाति के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करती थी। इन सभी संकटों से उबरने के लिए वो लोग एक साथ झुण्ड (समूह) बनाकर रहने की प्रथा की शुरूआत हुई। समाज शब्द की उत्पत्ति भले ही 20वीं सदी में हुई हो परन्तु इसकी नींव उसी समय पड़ चुकी थी। इस नवनिर्मित समाज का मुख्य उद्देश्य बाहरी खतरों से मानव जाति की रक्षा करना था। सिर्फ रक्षा करना ही नहीं अपितु सभी के साथ सुख-दुख में खड़ा रहना और अपनी जरूरतों को वस्तु विनिमय के द्वारा पूरा करना भी था। इसी छोटो से समाज में एक अद्भुत शक्ति का जन्म हुआ होगा। उसने मानव कल्याण की नई इबारत लिखी होगी। फिर भी लोग उसे ईश्वर तुल्य समझने लगे होंगे। शायद यहीं से ईश्वर का जन्म माना जा सकता है।  जब इस छोटे से समाज का विस्तार हुआ तो उन्हें अपने जैसे ही और मनुष्यों का पता चला। चूंकि सभ्यताएं अलग थीं, पूज्य देव अलग थे, निवास स्थान भी अलग था। फिर मनुष्य अपने भाईयों से मिलकर खुश होने के बजाय “आदमी गलतियों का पुलिंदा है।” जैसी कहावत को चरितार्थ किया। सिर्फ अपनी शैली, सभ्यता, नियम-कानून, इष्ट देव की भिन्नता के अलावा खुद की समानता देखना भूल गये। यहां से शुरू हुई वर्चस्व की लड़ाई। इस लड़ाई के मुख्यतः तीन भाग बने। हिन्दू मुस्लिम और इसाई। वर्षों पुरानी दुश्मनी आज भी यथावत बनी हुई है।
   यदि कोई इस सुझाव का पालन करे तो मैं बस इतना कहूँगा कि ‘मानवता ही एकमात्र धर्म है’। बस उदार तरीके से इसका पालन करें। जहाँ तक समाज में योगदान की बात है तो सभी व्यक्ति अपना-अपना कार्य पूरी निष्ठा करें। इससे ज्यादा योगदान की आवश्यकता नहीं होगी।
- पवन कुमार यादव

शनिवार, दिसंबर 30, 2017

प्रजा ‘तंत्र’


वर्तमान समय की राजनीति को ध्यान में रखते हुए यदि सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन करें तो समाज की कुछ कड़ियों की स्थिति निराशाजनक है और यही चंद कड़ियां अपने कुकर्मों से पूरी मानवता और सामाजिक परिदृश्य को शर्मसार करने के लिए उत्तरदायी हैं। इन सब घटनाओं के परिणाम स्वरुप उनके चरित्र के ऊपर एक संदेह की स्थिति बन जाती है। मुख्यतः नवमानव के लिए चरित्र और इमानदारी की बातें सिर्फ हास्य-व्यंग्य विषयों से ज्यादा कुछ नहीं है हालांकि बदलते समय में इन विषयों पर जागरूकता बढ़ी है पर इस तरह हो रहे मानवीय मूल्यों पर कुठाराघात संसार के आत्मिक विकास पर प्रश्नचिन्ह अवश्य लगा देगा। इससे निपटने के लिए सिर्फ एक शब्द ‘निर्माण’ को जीवन का मूल मंत्र बनाकर दैनिक दिनचर्या में शामिल करना होगा। ‘निर्माण’ एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है, एक सतत् रूप से किया गया श्रम है जिसका परिणाम देर से परन्तु स्थायी होता है।
उदाहरणार्थ यदि किसी बालक को बाल्यकाल में यह सिखाया जाये कि ‘सीधा पेड़ मत बनो उसे हर कोई काटता है!’ तो उससे यह देश अथवा स्वयं उसके पालनकर्ता यदि वफादारी की उम्मीद रखें तो यह कहीं से भी उचित नहीं होगा।
देश की वर्तमान भौतिक स्थिति को देखकर मेरा मित्र इसके दुष्परिणाम स्वरूप आज उन बातों का जिक्र किया जिसका मुझे कभी एहसास तक नहीं था।
“...भाई! वर्तमान परिदृश्य हमारे देश की नैसर्गिक स्थिति है, जिसे बचपन में समझना कठिन था!”
“...नहीं यार..! यदि तब ऐसी किसी दुर्व्यवस्था की स्थिति होती तो तुम्हारी अम्मी पहले ही लोगों से मिलने व बात करने के लिए मना कर देती! यह आज ही क्यों?”


जो प्रजातंत्र अपनी प्रजा के उचित अधिकारों के हनन पर उठती तर्जनी को बर्दाश्त कर ले, तो भविष्य में वह केवल ‘तंत्र’ रह जाता है और इस विलोप का जिम्मेदार वह स्वयं होता है।
मीडिया इसका एक महत्वपूर्ण अंग है या यूं कहें कि यह शासन सत्ता और जनता के बीच की इकाई है। सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने का दायित्व इसी पर है। किसी एक पक्ष का मेहमान या मेंजबान बनने से असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो इस की कमियों का एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अपराधों को विभिन्न वर्गों (जाति) में वर्गीकृत करके उसे श्रृंगारिक ताज की तरह से पेश किये जाने की प्रथा का प्रचलन इन्ही की देन है।
प्रजातंत्र के रक्षकों के लिए संविधान सिर्फ एक ढाल बनकर रह गया है जो समय-समय पर इन्हें सत्य पर असत्य की जीत दिलाता है। ये लोग भाषा की संयमता पर भी सिर्फ घड़ियाली आंसू बहाते हुए एक-दूसरे पर आक्षेप लगाते है।
इतना ही नहीं जब भी मंच से कूड़ो का ढेर प्रसारित किया जाता है तो इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि एक रोटी की छीना-झपटी के लिए नीचे चार छः भूखे कुत्ते अवश्य हो और इन्ही में से कुछ ‘अंधों में काना राजा’ टाइप के लिए बंद कमरों में रोटी की व्यवस्था की जाती है परंतु इनके काम में थोड़ी भिन्नता यह रहती है कि इन्हे अपना पूरा दिन ‘भगवद्-भजन’ में काटना होता है।

शुक्रवार, सितंबर 01, 2017

वियोग


वियोग..!
जब कोई मोह बंधन से मुक्त होता है तो उस मनोदशा को वियोग कहते हैं। वियोग सिर्फ वहीं संभव है जहां प्रेम है! आज मैं यहां प्रेम का बखान करने के लिए नहींं बल्कि प्रेम से इतर वियोग की चेष्टाओं पर विराम लगाने की कोशिश में आया हूं। वियोग से पूर्व की मनोदशा और हृदय के भाव प्रेम के साक्ष्य है। इस दशा का एहसास शायद ही ज्यादा देर रहे। लोग कहते भी हैं कि अच्छा समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता, लेकिन विरह एक विकट स्थिति है।
सामान्यतः इससे केवल दृढ़ संकल्पी लोग ही बाहर आ पाते हैं। कई बार हम इसे एक नकारात्मक बिंदु के तौर पर देखते हैं क्योंकि मोहबन्धन के बाद हम खुद को वियोगपाश में पहले से भी सुदृढ़ तरीके से बांध लेते हैं। यही पाश हमारा जीवन दूभर कर देता है। हम सिर्फ यादों का बोझ बढ़ा लेते हैं। अरे, यादें तो बस एक मुस्कान देती हैं। शांत चित्त मन से दिल पर हाथ रख कर ये सोचे कि उन्हें हमसे क्या उम्मीदें थी? वह हमारे भविष्य के बारे में क्या सोचते थे? क्या मैं उन के अनुरुप कार्य करने में सक्षम हूं? बस फिर क्या..! लग जाइए अपने लक्ष्य की प्राप्ति में।
...और जिस लक्ष्य का रास्ता उनके आशीर्वाद से होकर गुजरे तो फिर उसे पूरा होने से भला कौन रोक सकता है।

पवन कुमार यादव

सोमवार, जुलाई 10, 2017

सावन

आइए हम सब मिलकर सावन के पवित्र माह का स्वागत करते हैं। इस बार का सावन इसलिए खास है क्योंकि इसकी शुरुआत महादेव के दिन से अर्थात सोमवार से हो रही है और इस माह में पांच सोमवार का भी योग बन रहा है। सुबह की बारिश के साथ इसकी शुरुआत सोने पर सुहागा के समान है।
आज से ही सड़कों के किनारे भगवा वस्त्रधारी बोल बम की गूंज के साथ कांवरिया लिए हुए महादेव की खोज में निकल चुके हैं। बच्चे, बड़े और बूढ़े सभी उत्साहित हैं। भगवान शंकर की जटा से निकलती गंगाजी के अमृत समान जल से महादेव का पग पखारने के लिए। बुजुर्ग जो जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच गए हैं, शरीर की असमर्थता के बावजूद महादेव की माया से मुक्त नहीं होना चाहते। बस उन्हीं के हो जाना चाहते हैं। युवावस्था में भोलेनाथ की भांग ज्यादा पसंद की जाती है। क्योंकि इसके तेज को संभालने के लिए उनका शरीर सामर्थ्यवान होता है। वहीं बच्चे चंद्रेश्वर का आशीर्वाद पाने के लिए बेलपत्र एवं धतूरे आदि से उनका पूजन-अर्चन करते हैं।
बारिश से श्रावण मास की शुरुआत खरीफ की फसलों के लिए अच्छा संकेत है। किसान धान की नर्सरी की रोपाई के साथ-साथ ज्वार, मक्का, बाजरा और उड़द की खेती भी इसी माह में करते हैं। खासतौर से खरीफ की फसल के लिए श्रवण माह उपर्युक्त है।
स्त्रियों के लिए भी यह महीना अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। स्त्रियां भोलेनाथ एवं मां पार्वती का पूजन करती है एवं अपने अच्छे भविष्य की कामना करती हैं। सावन के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हरियाली तीज के रुप में मनाया जाता है। बिना झूले के इस पर्व की कल्पना कैसे संभव हो सकती है? सुहागिन स्त्रियों अपने हाथों में मेहंदी लगाकर, हरी चूड़ियां एवं हरे परिधान पहनकर आने वाली इस हरियाली का स्वागत करती हैं। यहां झूला झूलते हुए गीत गाने का भी चलन है।
सनातन जीवनशैली की मान्यतानुसार मां पार्वती और भगवान शिव का मिलन इसी तीज के दिन ही हुआ था। जिसकी खुशी, मां ने सखियों संग झूला झूल कर मनाई थी। उसी के बाद से यह परंपरा आज तक कायम है।
महाकवि विद्यापति जी द्वारा रचित मैथिली भाषा का यह गीत नचारी अत्यंत लोकप्रिय है:
कखन हरब दुःख मोर, हे भोलानाथ।
दुखहिं जनम भेल दुखहिं गमाओल
सुख सपनहु नहिं भेल, हे भोलानाथ
आछत चानन अवर गङ्गाजल
बेलपात तोहिंदेव, हे भोलानाथ।
यहि भव सागर थाह कतहुं नहिं
भैरव धरु करुआर, हे भोलानाथ।
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति
देहु अभय बर मोहिं, हे भोलानाथ।

पवन कुमार यादव

गुरुवार, जून 22, 2017

योग विज्ञान

yog vigyaan

योग प्राचीन काल से ही भारतीय जीवन शैली का हिस्सा रहा है। योग शब्द संस्कृत भाषा के ‘युज’ शब्द से बना हुआ है जिसका अर्थ है ‘जोड़ना’ अथवा ‘मिलाना’। यहां जोड़ने अथवा मिलाने से तात्पर्य है कि स्थूल शरीर का सूक्ष्म शरीर से सामंजस्य बैठाना। इसमें इन्हीं विधियों का वर्णन है। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक सिंधु घाटी सभ्यता के कुछ अवशेष प्राप्त हुए थे, जिसमें ध्यान की मुद्रा में बैठे योगी का चित्र था। जिसके आधार पर इतिहासकारों ने ये स्पष्ट किया कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भी इससे परिचित थे। इसका विस्तृत वर्णन पतंजलि के ‘योगसूत्र’ से मिलता है।
योगसूत्र’ योग पर लिखा जाने वाला विश्व का पहला ग्रंथ है। यह छ: दर्शनों में से एक योगदर्शन का ग्रंथ है। इसमें अपने चंचल मन को स्थिर करने की विधियां बताई गई है। 
पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्ति निरोध: अर्थात मन को अपने वश में करके या एकाग्र करके किसी एक जगह लगाना ही योग है।
वर्तमान समय में यह देश-विदेश में काफी उच्च स्तर पर पहुंच चुका है। इसमें UNO द्वारा किए गए कार्य सराहनीय है, जिसके माध्यम से यह भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता के रूप में विश्व पटल पर अंकित हो गया है।
11 दिसंबर 2014 का दिन योग इतिहास का सबसे बड़ा दिन बन गया इसी दिन UNO ने 21 जून को विश्व योग दिवस के रुप में मनाने का फैसला किया। भारतीय प्रधानमंत्री की अगुवाई में पहला योग दिवस 21 जून 2015 को दिल्ली में मनाया गया। जिसमें 35985 लोगों ने योगाभ्यास किया। इस दिन भारत ने दो विश्व रिकॉर्ड भी बनाए और अपना नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज कराया। पहला रिकॉर्ड यह की एक स्थान पर सबसे ज्यादा लोगों ने योगाभ्यास किया तथा दूसरा यह की सर्वाधिक देशो के साथ किया।
21वीं सदी विश्व इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है।  इस सदी में विकास और विनाश अपने चरम सीमा पर है। विनाश से आशय यह है कि जब विकास अपने स्वार्थ के लिए करते हैं, तो वह विनाश का कारण बन जाता है। इसका अनुभव आप कर सकते हैं। मुझे प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है।
योग एक सभ्य समाज व स्वस्थ समाज के निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत में अधिकतर लोग तनावग्रस्त हैं, चाहे वह गरीब हो, अमीर हो, बच्चे हो या फिर बूढ़े हो। सब पर इसका प्रभाव समान रूप से है। ऐसे में यह एक साधन बन जाता है अपने आप को जानने समझने का। यह हमारी जिम्मेदारी भी है कि आने वाली पीढ़ियों को शांतिप्रिय समाज देना। और यह सब संभव है तो सिर्फ योग एवं ध्यान के माध्यम से। कुछ लोग कहते हैं 5 मिनट चुपचाप बैठने से क्या होगा? जरूर होगा! समाज में सुधार निश्चित रूप से होगा ऐसा मेरा विश्वास है। परंतु पहले आपको प्रण लेना होगा कि मैं रोज योग व ध्यान करूंगा। जब मन शांत रहेगा तो शांतिमय समाज बनाने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
योग एक प्रकार का विज्ञान है। विज्ञान के रुप में इसे परिभाषित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि लोग इसे धर्म या संप्रदाय से जोड़कर देखते हैं, जो कि उचित नहीं है। वसुधा का कोई भी मानव यदि योग करे तो वह सबको समान रूप से लाभान्वित करेगा।
अंग्रेजी में एक कहावत है- 
‘Prevention is better than cure’ ‘रोकथाम इलाज से बेहतर है।’ योग ‘Science of Prevention’ अथवा ‘रोकथाम का विज्ञान’ है।
इससे बेहतर और क्या हो सकता है यदि हम रोग उत्पन्न होने से पहले ही उसका उपचार शुरू कर दें।
योग दिवस की घोषणा करने के बाद से भारत ही नहीं पूरे विश्व में योग शिक्षकों और योग इंस्टिट्यूट की मांग तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में योग शिक्षक एक बेहतरीन विकल्प के रुप में सामने है! भारत के कई यूनिवर्सिटीज़ योग से ग्रेजुएशन भी कराती हैं। इस क्षेत्र में आप अपने भविष्य को एक नया आयाम दे सकते हैं।

शनिवार, जून 03, 2017

“महिलाएं युद्ध का कारण है?”

आज सुबह मैं पार्क में व्यायाम करने के उपरांत कुछ देर सुस्ताने के लिए बैठ गया। वहां कुछ बुजुर्ग महिलाओं के विषय में चर्चा कर रहे थे। उनमें से एक महानुभाव ने कहा-“आज तक जितने भी युद्ध हुए हैं वह सभी महिलाओं के कारण हुए हैं” वहां खड़े सभी लोग प्रतिकार की बजाए मुस्कुराकर इस बात पर समर्थन दे रहे थे। उनके द्वारा कहा गया वक्तव्य मेरे हृदय को विदीर्ण कर गया। असहाय बुजुर्ग जिन्हें हम देश का स्तंभ मानते हैं, सबसे ज्यादा अनुभवी मानते हैं, उनके विचार इतने संकीर्ण कैसे हो सकते हैं? काफी सोच-विचार के बाद जब मैंने अपने गौरवशाली इतिहास पर नजर डाली तो ज्ञात हुआ कि पुरुषों द्वारा महिलाओं पर किए गए अत्याचार के कारण ही युद्ध हुए। फिर बात चाहे सीता जी की हो, द्रौपदी जी की हो या हो आधुनिक नारी की।
भारत आरंभ से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है, परंतु ऐसी प्रधानता किस काम की। जो अपनी गलतियां को भी स्वीकार ना कर सके। स्वीकार करने की बात तो दूर उन्हे स्त्रियों के सिर पर मढ़ने में जरा भी लज्जा नहीं आती। इसमें पुरुष ही नहीं महिलाएं भी उतनी ही दोषी हैं। पुरुषों के प्रतिकार की बजाय उन के सम्मुख गाय की भांति खड़ी रहकर कातर नजरों से दया की उम्मीद करती हैं।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ‘अन्याय करना सबसे बडा पाप है परंतु इससे भी बड़ा पाप है इसे सहन करना’।
इतिहास तो बीत गया अब लौट कर वापस आने वाला नहीं है। हम इतना तो कर ही सकते हैं कि इस से सीख ले कर अपने जीवन को नया मोड़ दे दें।
कौटिल्य के कथनानुसार-‘दूसरों की गलतियों से सीख लो खुद पर प्रयोग कर सीखने के लिए तुम्हारी उम्र छोटी पड़ जाएगी’। आधुनिक युग को देखकर भी यही लगता है कि स्त्रियों के विषय में अभी भी बहुत आमूलचूल परिवर्तन ही हुआ है। जिस तरीके से हम नया प्रभात लाने की कोशिश कर रहे हैं कहीं यह मील का पत्थर साबित ना हो। इसके लिए जन-जन की भागीदारी के साथ-साथ सरकार का सहयोग भी आवश्यक है।
अंततः एक विनम्र निवेदन उन सम्माननीय बुद्धिजीवीयो से भी है कि अपनी कुंठित सोच से समाज को दूषित ना करें। आप समाज के सम्मानीय हैं, कम से कम इस मर्यादा का ख्याल अवश्य रखें।
महिलाओं के सुरक्षित भविष्य की कामना के साथ सादर नमन!

Pavan Kumar Yadav

मंगलवार, मार्च 28, 2017

जन्मदिन


कुछ खुशियां बेवजह मना लेनी चाहिए। जैसे आज किसी ना किसी का तो जन्मदिन होगा ही! आज उसे मेरी तरफ से ‘जन्मदिन’ की हार्दिक शुभकामनाएं!
ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि उसे हमेशा खुश रखना, परन्तु जिसकी नियति ही उससे जुदा हो गयी हो, उसके लिए किस खुशी की दुआ करूं! जो पूरा जीवन दुःख में भी जीने को तैयार हो तो, सिर्फ साथ में। उसके लिए जीवन भर की खुशियां हास्यास्पद लगती है। बहुत मुश्किल होता है 'जन्मदाता ' और ' वरण' में से किसी एक का चुनाव करना। परंतु जब नियति बिना अवसर दियेे दोनों की अनुपस्थिति में जीने को मजबूर करती है, व अपने फैसले हमारे ऊपर थोप देती है, तो वह दु:ख हमारी कल्पना से परे होता है।
इस बात की प्रशंसा करनी होगी कि आखिरी रास्ता होते हुए भी वह अपने  जीवन को किसी तरह जी रही हैं। दुःखों के थपेड़े सहते हुए वो आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं
 ईश्वर उसकी इस तपस्या को अवश्य पूरी करेंगे।

-Pavan Kumar Yadav