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शनिवार, अगस्त 13, 2022

बुद्ध का वास्तविक स्वरूप

वास्तविकता से कल्पना कितनी भिन्न होती है। इसका प्रमाण गौतम बुद्ध की ये कलाकृति है। हम जब भी किसी चीज की कल्पना करते हैं तो वह सदैव सुंदर होती है। जब हमे कल्पना ही करना है तो कुरूप क्यों किया जाए। यह तथ्य भी स्नमरणीय है। किन्त जब उसकी तुलना वास्तविकता से होती है तो हमारी कल्पना कहीं नहीं ठहरती।

बुद्ध का वास्तविक स्वरूप 

यह तस्वीर गौतम बुद्ध के समय के आसपास की है। बहुत से लोगों का मानना है कि यह कलाकृति बहुत हद तक गौतम बुद्ध के वास्तविक शरीर से मेल खाती है। बुद्ध के लंबे समय तक उपवास रखने और ज्ञान की प्राप्ति में इधर-उधर भटकने के बाद की तस्वीर प्रतीत होती है। इस कलाकृति में उनके शरीर की एक एक हड्डी को स्पष्ट रूप से पहचाना और गिना जा सकता है। उनकी आंखें इस हद तक अंदर धंस गयी हैं कि भरोसा करना मुश्किल प्रतीत होता है। लेकिन यह तस्वीर देखने के उपरांत बार-बार ऐसे भाव उमड़ते हैं कि अपनी अंतिम अवस्था में गौतम बुद्ध की शारीरिक काया काफी हद तक इसी तरह रही होगी।

क्या कोई भरोसा कर सकता है की इस जीर्ण, क्षीण, दुर्बल काया के मानव के भीतर ऐसा पुंज प्रकाशित हो रहा था जिसके भीतर एक युग को पलटने की क्षमता विद्यमान थी। अधिकतर संतो के वास्तविक स्वरूप को इसी तरह पाते हैं। हालांकि चित्रों और चलचित्रों में हमारी कल्पनाएं उन्हें बहुत सुंदर बलिष्ठ और चमकदार प्रदर्शित करती हैं, परंतु है तो वह सिर्फ एक कल्पना ही!


© पवन कुमार यादव



मंगलवार, जून 14, 2022

कबीर : विराट व्यक्तित्व


महात्मा कबीर दास जी

भारतीय संत परंपरा में कबीर दास जी का आविर्भाव एक विराट व्यक्तित्व के रूप में हुआ। व्यक्तित्व की यह विशालता उन्हें एक दिन में नहीं प्राप्त हुए थी। जन्म काल से लेकर अंत समय तक वे हमेशा संघर्ष की कसौटी पर स्वयं को कसते रहे। इन परिस्थितियों को नियति ने उनके जीवन के लिए ही चुना था। वह वर्तमान दृष्टिकोण से देखने पर अत्यधिक कठोर लगतीं हैं। उस काल में तो ये सब कल्पनातीत लगतीं रहीं होंगी। कबीर के पिता अज्ञात थे। जाति निकृष्ट थी। उनके लिए प्रत्येक मार्ग बाधक ही था। उस समय का समाज बेड़ियों से कम नहीं था। जो सदैव मार्ग अवरूद्ध करने को तत्पर था। लेकिन इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ा।

उन्होंने उस समय के सर्वश्रेष्ठ गुरु 'रामानंद' को विवश कर दिया, अपना शिष्य बनाने के लिए। रामानंद का शिष्य बनकर, कबीर उस ऊंचाई को प्राप्त हुए, जहां पहुंचना बड़े-बड़े गुरुओं का स्वप्न होता है। वह चाहते तो हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहते। उनके पास पर्याप्त बहाने थे। लेकिन वो इन्हें अपनी ढ़ाल बनाने की बजाय भाल बनाए और वीरता पूर्वक इस भवसागर का सामना किया। दुनिया में ऐसी कोई ताकत नहीं थी जो उनके व्यक्तित्व को खंडित कर सके। जबकि सामना उन्होंने बारी-बारी से सबका किया।

गर्व और अहंकार में बड़ी पतली विभाजक रेखा होती है। जरा सा फिसले तो बात बिगड़ सकती है। कबीरदास जी अपने इष्ट के संबंध में कहते हैं।


कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर ,

पाछै लागै हरि फिरै ,कहत कबीर कबीर।


कबीरदास ने यह पंक्ति बड़े गर्व, प्रेम और माधुर्य भाव से प्रकट की है। उनके कहा है कि कबीर के पीछे-पीछे ईश्वर चल रहे हैं। उनके व्यक्तित्व की विराटता ऐसी है ही। तभी तो कबीर इतने प्रासंगिक हैं।

बिना रस, छंद, अलंकार के ज्ञान के ऐसी शब्द व्यंजना अद्भुत है। एक तरफ तो वह स्वयं को अनपढ़ क्या, कलम स्याही तक से दूर बता देते हैं। दूसरी तरफ उनके काव्य अभिव्यंजना लयबद्ध पदों का संयोजन और अनूठी शैली आश्चर्य की सीमा से परे हैं।

उनके उपमान भी सबसे अलग और अनूठे हैं। सूर्य और चन्द्र को नाड़ियां अथवा हठ योग प्रदर्शित किए हैं। जो कमल सुंदरता और कोमलता का मापदंड हुआ करता था। वह स्वयं बुझा-बुझा सा है।

'काहे री नलिनी तू कुम्हलानी'

जिस मृग की महत्ता उसकी आंखों और चाल से होती थी। अब वही भीतर के प्रकाश की ओर संकेत कर रहा है। 


कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे बन माहि।

ऐसे घटि घटि राम हैं दुनिया देखे नाही।।


ऐसे उदाहरणों से उनका काव्य काफी समृद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है मानो यह सब अनवरत रूप से ही उनके काव्य में समाहित हो आया है।

एक घटना अक्सर प्रसंग में आती है। जब वह अपनी पत्नी को लेकर स्वयं दुकानदार के पास जाते हैं। उसके बाद की कहानी से तो सभी परिचित हैं। यह बात उनके क्षमता और लोई के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा का प्रमाण है। ऐसा सिर्फ कबीर ही कर सकते हैं।

इस संसार में एक पिता के लिए उसका पुत्र सबसे प्यारा होता है। सारे लोग यही सोचते हैं कि कितना धन और धर्म संचित कर दें। जिससे हमारा पुत्र जीवन भर आराम से रह सके। लेकिन कबीर कभी धर्म विरुद्ध आचरण स्वीकार नहीं किए। फिर उनके समक्ष कोई भी हो। उन्होंने अपने पुत्र को बड़े तीखे स्वर में फटकारा। 


बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल,

राम नाम को तजि करि घर ले आया माल ।  


सद्गुरु की तीखी फटकार सब को अमरत्व प्रदान कर सकती हैं। जैसा कि कबीर ने अपने पुत्र के संबंध में कह कर उसे अमरत्व प्रदान किया।

कबीर दास जी का जीवन हमेशा संघर्षपूर्ण रहा। उनकी परिस्थितियों पर दृष्टिपात करते हुए भाव आ रहे हैं कि यह सब विशेष रूप से उन्हीं के लिए नियत ने निर्धारित किया था।

सामान्य व्यक्ति के पास इन चुनौतियों से उबरने की सामर्थ्य नहीं है। यह समस्त मानव-जगत का संचित पुण्य-प्रताप है जिसके कारण कबीर की वाणियों, भावों और विचारों को अध्ययन करने का आनंद मिल रहा है। कबीर को इस बात से रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता होगा कि उनकी वाणियों का कोई किस प्रकार उपयोग कर रहा है! यदि हमारे पास यह अमूल्य निधि नहीं होती तो, जो दो चार लोग इसके मार्गदर्शन से अपने लक्ष्य को प्राप्त हुए, उनके भटकने की पूरी संभावना होती।


कबीरदास जी द्वारा रचित 'साखी' का एक दोहा 

आज 'कबीर जयंती' के दिन ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हम सभी को कबीरदास जी जैसा व्यक्तित्व प्रदान करें।

© पवन कुमार यादव


#कबीर #जयंती #जेठ #पूर्णिमा #कबीरदास 

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रविवार, मई 29, 2022

प्रेत प्रेम | पवन कुमार यादव

                          “लेखकीय


नमस्कार मित्रों,🙏🏻

हम आप सभी लोगों का स्वागत करते हैं अपनी पहली श्रृंखलाबद्ध रचना में। जिसका शीर्षक है प्रेत-प्रेम। जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस पूरी कथा का ताना-बाना किन विषयों पर आधारित है! फिर भी मैं आप सभी लोगों को आश्वस्त कर देना चाहता हूं कि पूरी कहानी शीर्षक के ही इर्द-गिर्द घूमती है। श्रृंखलाबद्ध रचनाओं का यह मेरा पहला अनुभव है। अतः आप सभी पाठक बन्धुओं से सहयोग अपेक्षित है। जहां कहीं भी, जिस भी भाग में, आप लोगों को कोई समस्या हो, कोई समाधान हो अथवा आप अपने विचार ही प्रकट करना चाहें, तो दिल खोलकर करें। यहां आप सभी का स्वागत है।

इस पूरी प्रक्रिया में भाषा का विशेष ध्यान रखा गया है। यदि आप संस्कृतनिष्ठ अथवा तत्सम शब्दावली के प्रेमी हैं, तब तो यह आपके लिए और भी महत्वपूर्ण श्रृंखला साबित होगी। इसका मुख्य उद्देश सिर्फ मनोरंजन न होकर, हिंदी भाषा के प्रति प्रेम प्रदर्शन भी है। इसे पढ़ने के उपरांत आपकी भाषा के सशक्त होने की पूरी संभावना है।

स्वाभाविक रूप से जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती जाएगी, उसी प्रकार नई-नई किस्तें आती जाएंगी। मैंने पहले से बहुत लंबी-चौड़ी योजनाएं नहीं बनाई है। इसलिए इसकी कितनी किस्तें आएंगी इस विषय में कुछ कह पाना मुश्किल है। आप धैर्य के साथ-साथ स्नेह बनाए रखें, आपकी रोचकता में कोई कमी नहीं आएगी। इस बात का दायित्व स्वत: ही मेरे कंधों पर है। अबतक इसके कुल तेरह भाग प्रकशित हो चुके हैं। इन्हें आप प्रतिलिपि हिंदी के एप पर जाकर पढ़ सकते हैं। लिंक निम्नलिखित है।👇

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प्रेत प्रेम को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें 👉 प्रेत प्रेम

                                                        ~ पवन कुमार यादव

   

प्रेत प्रेम |पवन कुमार यादव


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बुधवार, अप्रैल 06, 2022

लखनऊ

लखनऊ मेरे प्रिय शहरों में से एक है। वहां पर अपने सहपाठियों से मिलना, गुरुजनों से मिलना, हर बार एक नया उत्साह देता है। गुरुजनों का आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त करना बड़े सौभाग्य की बात है। जब मुझे सहपाठियों और गुरुजनों से मिलने के विषय में जानकारी हुयी। तभी से मेरे मन में एक झिझक उत्पन्न हो गई थी। किस प्रकार अपनी असफलताओं को लेकर उनके समक्ष उपस्थित होऊं? पता नहीं यह मेरे लिए अच्छा होगा या नहीं? साथ के मित्र न जाने क्या सोचेंगे मेरे विषय में?

इस प्रकार के तमाम प्रश्न मेरे मन को गहरे अंधकार में धकेलने लगे। लेकिन जैसे-जैसे मिलना होता गया, वैसे वैसे सब कुछ बहुत सहज हो गया। बहुत आसान हो गया। हृदय एक नए उत्साह से भर गया। सब कुछ बिल्कुल नए जैसा लगने लगा। थोड़ी बहुत पढ़ाई और कुछ सामाज से संबंधित बातें हुई। नए दृष्टिकोण प्रतिपादित हुए। कुछ धारणाएं टूटी।

इन सब घटनाओं से एक नई सीख मिली कि कभी भी माता-पिता और गुरु से मिलने में शर्म और शंका नहीं होनी चाहिए। जितनी बार भी मिलना हो सके। इसी में अपना सौभाग्य समझना चाहिए। क्योंकि हम कभी भी इनसे मिलने के बाद खाली हाथ नहीं लौटते, कुछ ना कुछ अवश्य ही प्राप्त होता है। व्यक्तिगत तौर पर ऐसा मेरा मानना है। जिन्हें भी इस प्रकार का अनुभव होगा। वह मेरी बात से अवश्य सहमत होंगे।

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© Pavan Kumar Yadav






शनिवार, अक्तूबर 02, 2021

गांधी जयंती

महात्मा गांधी का विरोध करना बड़ा कूल-सा प्रचलन हो गया है इस देश में। आप दो-चार मित्रों के सामने या किसी छोटे समूह में अपनी बात रखते हुए गांधी को दो चार गाली देकर अपनी कॉलर खड़ा करके पूरा स्वैग में आ सकते हैं। साथी मित्रों में इतनी जीवंतता नहीं बची है कि वह स्वयं उठकर इसका विरोध करें। उन्हें यह डर है कि कहीं विरोध करते ही वह पुरानी पिछड़ी और रूढ़िवादी सोच वाले व्यक्ति न मान लिए जाएं।

बेहद दुःख होता है जब किसी गांधीवादी को पुराना और पिछड़ा मानकर उसकी अवहेलना की जाती है। पीठ-पीछे उसका उपहास उड़ाया जाता है बस इसलिए कि वह समस्त मानव जाति के सार्वभौमिक नियमों का पालन करता है। 'गांधी के विचारों' को बस इसलिए नहीं छोड़ा जा सकता कि वह 'गांधी' के हैं। बल्कि यह समस्त मानव जाति की मौलिक जरूरत हैं। यदि आप उनका पालन नहीं कर पा रहे अथवा प्रयासरत भी नहीं होना चाहते हैं, तो एक बार शांति से बैठ कर अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन करें।

गांधी के मूल्य और सिद्धांत कोई नए नहीं है। न ही उन्होंने गढ़ा है। गांधी से पहले बुध्द हुए और उनसे पहले न जाने कितने ऋषि-मुनि हुए। जिन्होंने अपने ज्ञान से समस्त विश्व को प्रकाशमान किया। ज्ञान की परंपरा भारत की सर्वाधिक समृद्ध परंपरा रही है।



यदि विषय से हटकर विचार करें तो ऋषि, महात्मा, बुद्ध और देवता तुल्य होना मुश्किल नहीं है इस देश में। बहुत आसान है। बस इतना करना है कि अनवरत चली आ रही भारतीय बौद्धिक संपदा में से किसी एक कल्याणकारी मंत्र को चुनकर अपना सर्वस्व जीवन उसके प्रति समर्पित कर देना है। फिर आप देखेंगे कि परिवर्तन शुरू हो चुका है। धीरे-धीरे ही सही आपकी ख्याति सभी दिशाओं में समान रूप से बढ़नी शुरू हो जाएगी। 

हां! इतनी सावधानी अवश्य करनी है कि मंत्र कल्याणकारी ही होना चाहिए। क्योंकि हमारे यहां ज्ञान की बड़ी विस्तृत परंपरा रही है। सभी तरह के ज्ञान उपलब्ध हैं। उनमें से हितकर ही चुना जाना आवश्यक है।

भारत जैसे देश में बुद्ध और गांधी का होना कोई बहुत बड़ा तोप नहीं है। यह एक स्वाभाविक सी बात है।

सिर्फ अहिंसा को ही जीवन का आधार मानकर गौतम, सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए। उसी अहिंसा और सेवा धर्म को गांधी जी अपने जीवन में उतारकर मोहनदास से महात्मा गांधी हो गए। 

स्पष्टतः हम यह कह सकते हैं कि..।

आचरण से शुद्ध होना ही बुद्ध होना है, और सेवा धर्म का आदी होना ही गांधी होना है। 

 


 अपनी आत्मकथा में गांधी जी ने बताया है कि दक्षिण अफ्रीका के प्रवास पर उनके समक्ष ऐसे कई मौके आए, जब उन्होंने वहां की सरकार से आज्ञा लेकर रोगियों और घायलों की सेवा से सुश्रुषा की। बिना किसी लाभ के उन्होंने अपने आप को संपूर्ण रूप से रूप से झोंक दिया। हालांकि संक्रामक रोगों में इस बात का अंदेशा सदैव बना रहता था कि कहीं उन्हें भी संक्रमण न हो जाए। परंतु उन्होंने अपने सेवा धर्म के सम्मुख कभी हार स्वीकार नहीं की। उन्होंने जो भी व्रत लिया, उसके पालन में स्वयं को पूर्णतः झोंक देते थे। 

जब भारत में लोग एक दूसरे के हाथ से छुआ हुआ जल तक नहीं ग्रहण करते थे। उस समय दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी समस्त भारतीय निवासियों के पखाने साफ कर रहे थे। उनको लोगों को स्वच्छता का मंत्र सिखाने के साथ-साथ स्वयं भी उसका पालन करते थे। वहीं न कहीं यह भी सत्य है कि यहां के समस्त भूभाग (वर्तमान भारत) पर रहने वालों को संगठित करने का प्रयास प्रथम प्रयास गांधी जी ने ही किया। बाद में उसे सरदार पटेल जी ने इसे संवैधानिक दृष्टि से एकीकृत किया। 



गांधीजी की आत्मकथा पढ़ते हुए मैंने पाया है कि उनके अंदर हमेशा कोई न कोई पुस्तक पढ़ते रहना का जज्बा रहा। जब भी किसी विषय की समझ अथवा जानकारी लेनी होती तो वह उससे संबंधित पुस्तक पढ़ लेते। उसमें बताई गई बातों को स्वयं पर ही प्रयोग अथवा परीक्षण करके उसकी सत्यता को प्रमाणित करते थे। उनके जीवन की स्वाभाविक गति के साथ यह प्रक्रिया निरंतर चलती रही। 

मुझे कुछ ही दिन हुए हैं उनकी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' को पढ़े हुए। पढ़ कर मुझे ऐसा लगा कि यदि बापू के इस 'सत्य के प्रयोग' कुछ वर्ष पूर्व या फिर बचपन में ही पढ़ लिया होता तो जीवन की कई बुराइयों अथवा समस्याओं से स्वयं को बचा सकता था। खैर, जो बीत गया उसका क्या दुख किया जाए। अब से जो सुधार संभव है उनके प्रति सचेत रहना आवश्यक है।

मेरा ऐसा मानना है 'सत्य के प्रयोग' पुस्तक सभी युवा साथियों को पढ़नी चाहिए। जिससे वह उन गलतियों और बुराइयों से बच सकते हैं जिसमें साधारण व्यक्ति आसानी से फंस जाता है। 

गांधीजी के विषय में बहुत से लेख और किताबें प्रकाशित हुई हैं। जिसमें सभी उनके विचारों और जीवन को समझने का प्रयत्न करते हैं। मेरे लिए गांधी के विषय में लिखना अथवा कहना सूर्य को दीपक दिखाने की भांति हैं।

मैं बापू को जितना समझ पाया हूं उसका बहुत थोड़ा हिस्सा ही लिख पाया हूं। यदि उनके व्यक्तित्व का एक प्रतिशत गुण मेरे अंदर आ जाय तो मैं ईश्वर का बहुत बहुत आभार व्यक्त करूंगा, और स्वयं को धन्य मानूंगा। तभी गांधी जयंती का पावन पर्व सार्थक सिद्ध होगा।



© पवन कुमार यादव

रविवार, अगस्त 15, 2021

स्वतंत्रता दिवस २०२१

आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर आप सभी लोगों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।🙏🏻💐

भारत की आजादी में अपना योगदान देने वाले उन तमाम सपूतों को नमन।जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए देश की आजादी में अपने आप को पूरी तरह से झोंक दिया। जिन्होंने अंग्रेजों के सामने कभी अपने घुटने नहीं टेके। वह सतत संघर्षशील रहे। उनकी आंखों में बस एक ही सपना था कि एक दिन हमारे देश में भी स्वतंत्रता का सूर्योदय दीप्तिमान होगा। 

उन महान सपूतों ने अपना पूरा जीवन संघर्ष में बिता दिया। सिर्फ इस उम्मीद के लिए कि हमारी आने वाली पीढ़ियां स्वतंत्र रूप से अपना जीवन निर्वाह करेंगी। ऐसे न जाने कितने वीर सपूत हुए जो पूरे जीवन भर स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते रहे और अंततः एक भी दिन, बिना स्वतंत्रता के, जिये हुए ही, शहीद हो गए। ऐसे महान सपूतों को आज पूरा देश हृदय से प्रणाम करता है।

आज के इस पावन पर्व पर उन तमाम ज्ञात और अज्ञात सपूतों को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।जिन्होंने अपने प्राणों की आहूति देकर हमारी स्वतंत्रता मोल ली है।💐🙏🏻

हमारे देश के वीर शहीदों ने जो स्वप्ने देखा था, उसे पूरी निष्ठा से संपन्न किया और आज हम एक आजाद देश के रूप में स्थापित हुए। उन्होंने जो कसमें खाई थी, जो स्वप देखे थे, उसके लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया, लड़े, शहीद हुए और अंततः अपना संकल्प पूरा किया और देश को आजादी दिलवाई।

जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर स्वतंत्रता मोल ली हो। वह स्वतंत्रता की उपेक्षा नहीं कर सकता है। स्वतंत्र होने के बाद एक संपन्न देश के रूप में स्वयं को स्थापित करना भारत की नई चुनौती है। इसमें हम सभी देशवासियों को मिलकर सहयोग करने की आवश्यकता है। 

आज के दिन हमें देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए संकल्पशील एवं प्रतिबद्ध होना होगा।


एक बार पुनः आप सभी लोगों को स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

🙏🏻

#स्वतंत्रता_दिवस2021

#HappyIndependeceDay2021

💐🙏🏻🇮🇳

© पवन कुमार यादव

शनिवार, जुलाई 24, 2021

गुरु पूर्णिमा - २०२१

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
💐
अर्थात, गुरु ही ब्रह्मा है,
गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है।
गुरु ही साक्षात परब्रह्म है।
ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
🙏🏻


हिंदू कैलेंडर के अनुसार आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथि को 'गुरु पूर्णिमा' के नाम से जाना जाता है। इसे 'व्यास पूर्णिमा' भी कहते हैं। क्योंकि इसी दिन भगवान वेदव्यास जी का जन्म हुआ था। वेदव्यास जी को प्रथम गुरु होने का गौरव प्राप्त है। उन्हीं के जन्मदिवस को आधार मानकर पूरे भारत में 'गुरु पूर्णिमा' का त्यौहार मनाया जाता है। भारतीय चिंतन परंपरा में गुरु और शिष्य के संबंधों को शीर्ष स्थान दिया गया है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक जितने भी संत महात्मा हुए हैं, उनमें से सभी के व्यक्तित्व की ऊंचाई बिना गुरु के संभव नहीं थी।
इस परंपरा को नई ऊंचाई और नया दृष्टिकोण देने में महात्मा कबीर दास जी का योगदान सर्वोपरि है। उन्होंने हमेशा से चले आ रहे गुरु और ईश्वर के बीच के द्वंद को समाप्त किया। उन्होंने गुरु और गोविंद में से गुरु को शीर्ष स्थान पर स्थापित किया। उनका यह तर्क सत्य और अकाट्य है। कबीर दास जी ने 'गुरु के अंग' नामक शीर्षक में गुरु की महत्ता का विस्तार से वर्णन किया है। 
वर्तमान समय की शिक्षा पद्धति यदि किसी बालक भीतर मानवीय मूल्यों का विकास करने में संभव नहीं है तो निश्चित तौर पर ऐसी शिक्षा का कोई लाभ नहीं होने वाला है। आज के समय में यह गंभीर चिंतन का विषय है। यदि केवल गुरु और शिष्य के रिश्तों को ही बचाने में सफल हो जाएं, तो संभव है सारी चुनौतियां अनुकूल होने में विलंब नहीं होगा।
कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसके जीवन में गुरु का मार्गदर्शन अथवा आशीर्वाद नहीं है, तो उसके लिए इससे बड़ा दुख दुनिया में कुछ नहीं है। प्रथम गुरु के रूप में मां का ही आशीर्वाद यदि सिर पर है तो आप इस भवसागर की चुनौतियों से लड़ सकते हैं। तनाव मुक्त जीवन का यही एकमात्र आधार भी हो सकता है।
इसी का दूसरा पक्ष यह भी है कि सर्वाधिक प्रभावित रिश्तों में से यह एक है। बढ़ते वृद्धाश्रम इस कथन की पुष्टि करते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सबसे कुछ न कुछ सीखता ही रहता है। यह क्रिया शास्वत है, अस्तित्व के अंतिम बिन्दु तक अनवरत जारी रहती है। 
गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर हम अपने लौकिक, भौतिक और आध्यात्मिक गुरूओं के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करतें हैं और निवेदन करते हैं आप हमारे समस्त दुर्गुणों को दूर कर, हमारे भीतर मानवीय मूल्यों का संचार करें।
सादर चरणस्पर्श।
🙏🏻

#gurupurnima_2021

सोमवार, मई 17, 2021

रॉबिन्स : जाने के बाद

मन बहुत व्यथित है। एक संस्मरण साझा करना चाहता हूं। करना तो नहीं चाहता, पर बाध्य हूँ। आज मैं अपने मन और हृदय के बीच के असंतुलन को व्यवस्थित कर पाने की दशा में नहीं हूँ, अथवा अक्षम हूँ। पिछले कुछ दिनों से जब भी कलम उठाया हूं, उसके पीछे कोई सुखद कारण नहीं बन सका। ऐसा कब तक होगा, कुछ कह भी नहीं सकते।

पुरानी यादों का संस्मरण तब बहुत सुखदाई होता है, जब संबंधित व्यक्ति उसे पढ़ कर अपनी प्रसन्नता और उत्साह प्रकट करे। लेखक का दुर्भाग्य यह है कि जब अपूर्णता अपने चरम पर होती है, तब उसके लेखनी की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। मेरे लिए इसका लेखन किसी पुराने रोग जितना पीड़ादायी है।

आजमगढ़ के एक छोटे से गांव से मुझे अपने ननिहाल खलीलाबाद गए हुए तीन वर्ष बीत चुके थे। कक्षा सात में मेरा नामांकन सरस्वती विद्या मंदिर, खलीलाबाद में हो गया था। वहीं पर मेरी मुलाकात रॉबिन्स से हुई थी। साफ रंग एवं छोटे कद-काठी का औसत से भी कम विकसित शरीर, जिसे देखकर मेरे अंदर का सामान्य बालपन यही सोच कर खुश हो जाता था कि इसे मैं आसानी से पटक दूंगा। उसकी शारीरिक दुर्बलता देखकर निसंदेह मेरे मन में यह विचार सबसे पहले आया था। परंतु शारीरिक सबलता और बुद्धिमत्ता दोनों का एक साथ मेल प्रायः कम ही देखने को मिलता है। रॉबिन्स बौद्धिक रूप से काफी मजबूत था। इसे स्वीकार करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि वह जिस वर्ग ('क' वर्ग) में था, वह अच्छे और पढ़ने लिखने वाले विद्यार्थियों का था। कक्षा सात और आठ के दौर में मेरा और रॉबिन्स का बस इतना सा परिचय था कि वह मेरे स्कूल का, मेरे ही कक्षा में पढ़ने वाला एक विद्यार्थी था। कक्षा नौ तक आते-आते परिस्थितियों में काफी परिवर्तन हुआ। पहली बार कक्षा नौ में जाने पर पढ़ाई की अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हुआ और थोड़ा डर भी था कि अब हम बड़ी क्लास में है। यह वही दौर भी था, जहां पहली बार गणित और विज्ञान जैसे विषयों की कोचिंग के लिए भागदौड़ शुरू की गई। मेरे बड़े भैया ने मुझे रामललित सर जी के पास पढ़ने को भेज दिया। सर जी का घर रॉबिन्स के घर से बहुत करीब था। बीते दो वर्षो में यह पहला मौका था, जब हम एक अच्छे दोस्त हो गए थे। सर जी के घर से पढ़ने के बाद अक्सर हम साथ में ही स्कूल जाते थे। सब कुछ बड़ा सामान्य सा था।

एक घटना याद आती है जो हमारी हल्की-फुल्की नोंक-झोंक को दर्शाती है। रॉबिन्स शायरी का बड़ा शौकीन था। इस बात का पता मुझे इस घटना के बाद ही चला। 

एक दिन अखबार में कुछ शायरी (शायद चार या पांच रही हो) प्रकाशित हुई थी। उसकी कटिंग लेकर मैं स्कूल पहुंचा। कक्षा के अंदर आते ही मैंने सारी की सारी शायरियाँ पढ़ कर उसे सुना दिया। उनमें से कुछ रॉबिन्स को बहुत पसंद आयी। उसने उन सभी को मेरे समक्ष कॉपी में लिखवाने का प्रस्ताव रखा।

इसे आप मेरी मानसिक संकीर्णता समझें अथवा बालपन का हठ। मैंने इसे तुरंत अस्वीकार कर दिया। कहीं न कहीं मेरे मन में यह भी अहंकार था कि मैं उससे ज्यादा ताकतवर हूं जो भी होगा अकेले ही सम्हाल सकता हूँ। अखबार की कटिंग को मैंने सामाजिक विषय (विषय स्पष्ट नहीं) की कॉपी में रख लिया। बात आई गई और खत्म हो गई। अब शायरी, अखबार और उसके टुकड़े की बात मेरी स्मृति से उतर चुकी थी। स्कूल की छुट्टी होने पर रॉबिन्स मेरे पास आया और बोला

'पवन मुझे सामाजिक विषय की कॉपी दे दो! दो-तीन दिन का अवकाश है। जिससे मैं अपना विषय पूरा कर लूंगा।'

घर पहुंचने की जल्दी में, मैंने बहुत सोच-विचार नहीं किया। बैग से कॉपी निकाली, थमा दिया उसे। और चला आया अपने रास्ते। आधे रास्ते में पहुंचकर जब मुझे अपनी सारी मूर्खता याद आयी। तब तक मेरे हृदय की गति बढ़ चुकी थी। बार-बार मुझे अपने किए पर पछतावा हो रहा था? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था? क्या हो जाता यदि लिखवा देता? कौन सा वह मुझसे बहुत मूल्यवान वस्तु मांग रहा था? हालांकि यह तो मेरी वर्तमान की सोच है। तब की तो, जो करना था मैं कर चुका था। अगले बार जब स्कूल खुला तो सबसे पहले मैं रॉबिन्स से मिला, अपनी कॉपी मांगी। कॉपी तो तुरंत मिल गई। पर कटिंग को देने के लिए छुट्टी तक का समय मांगा। पूरे दिन मैंने उसे बहुत मिन्नतें की पर हर बार उसका एक ही जवाब आता, छुट्टी में देगें। मेरा मन खिन्न और दुखी हो चुका था। छुट्टी में मैंने उससे मांगना उचित नहीं समझते हुए, चेहरे पर दुखी एवं कातर भाव लिए हुए घर की ओर लौटना मुनासिब लग रहा था। बाद में रोबिन स्वयं मेरे पास आया और मुस्कुराते हुए अपने शर्ट की थैली में हाथ डाला, वही अखबार की शायरियों वाली कटिंग धीरे से मेरे हाथों में थमा दिया। मेरे चेहरे की उदासी एकाएक खुशी में परिवर्तित हो गयी। बड़ी तत्परता से हम दोनों एक दूसरे से हाथ मिलाए और मुस्कुराते हुए घर की ओर चल दिये।

हाईस्कूल तो हमने साथ में ही पास किया। उसके बाद वह खलीलाबाद के ही एक कॉलेज में एडमिशन ले लिया, वहीं से आगे की पढ़ाई शुरू की और वहीं से ही पलायन मेरे जीवन का सत्य बना। जो हमेशा मुझे इधर से उधर ढकेलता रहा। न जाने कहां जाकर स्थिर हो पाऊंगा।

उपरोक्त घटना के बाद से मैं भली-भांति समझ गया कि प्रकृति सबको अपनी ताकत और कमजोरी देकर भेजती है। हमें किसी का भी अहंकार नहीं करना चाहिए। रॉबिन्स के माध्यम से हम इस नश्वर शरीर के प्रत्यक्ष गवाह बने। उसे रक्त कैंसर पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया था।

16 मई 2021 यानी सुबह तक उसका शरीर उसकी आत्मा का साथ छोड़ चुका था।

हमारी बाकी मित्रों से भी उसके विषय में बात होती थी। जो उसकी हंसी और खुशमिज़ाजी की बड़ी तारीफ करते थे। इस हंसी और खुशमिज़ाजी के पीछे क्रूर समय अट्टाहास कर रहा था। जो आज सुबह उसके शरीर को अपनी आत्मा से अलग कर दिया। अपनी मान्यता एवं धारणा के आधार पर हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनके समस्त मानवीय भूलों को क्षमा करके, उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान प्रदान करें।

मुझे इस बात की शर्म एवं ग्लानि है कि उसके जीवित रहते हुए मैं कुछ भी नहीं कर सका। मृत्यु के पश्चात भी एक पुष्पांजलि तक  अर्पित न कर सका। फिर आज ये हजार शब्दों की शब्दांजलि अर्पित करने का क्या लाभ? बस इसी दिखावे तक ही जीवन की सार्थकता सिमट कर रह गयी है? संभवतः आज का परिवेश ही ऐसा है। किसी को किसी की भी नहीं पड़ी। कोई भी अपनी परेशानियों से थोड़ा भी ऊपर नहीं उठ पा रहा है। मैं स्वयं भी इन बेड़ियों से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा हूँ। 

रॉबिन्स की हंसी के पीछे की भयावहता का विकराल रूप उसके अकेलेपन में अवश्य ही सुस्पष्ट एवं मुखर हो उठता होगा। वह जिस स्थान पर खड़ा था, वहां से जीवन का अंतिम बिंदु स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता था। इस अंतिम बिन्दु के ज्ञात होने के पश्चात जीवन की दशा और दिशा कैसे तय की जा सकती है? वह 

जिस अन्तर्द्वन्द्व में था, उसका अंदाजा शायद ही किसी को हो? 

यदि आप सोचने-समझने बैठेंगे तो दिमाग सुन्न हो जाएगा।


...आखिर !

आज वह सब कुछ समाप्त हो गया, जो उसके जीवित रहने का कारण था! हम अपने पुराने सहपाठी एवं परम मित्र श्री रॉबिन्स सिंह जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हृदय की गहराइयों से प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर उन्हें अपने परमधाम में स्थान दें, एवं उनके परिवार को इस दुख की घड़ी से लड़ने की शक्ति प्रदान करें।

ईश्वर उनके परिवार एवं समस्त बन्धुओं के दुखों का निवारण करें।


~पवन





गुरुवार, अप्रैल 29, 2021

बेहया

 एक बात बताएं?

हमारे गांव में एक पेड़ होता है उसका नाम है 'बेहया'



शायद तुम भी सुनी हो कभी?

...तो जब हम लोग कोई एक ही शरारत या बदमाशी बार-बार करते थे, तो माता जी कहतीं थी 'का एकदम बहया के पेड़ हो गयल होव्वा! एक पैसा क समझ ना हौ, बुद्धि भ्रष्ट हो गइल हौ का...!!

लेकिन तब बेहया शब्द कहने व सुनने से कोई फर्क नहीं पड़ता था।

...और ये भी समझ नहीं थी 'बेहया' शब्द गाली ही है एक तरीके से।

...लेकिन समय बदलता गया! 

...और अब मुझे कोई भी बेहया नहीं कहता! क्योंकि अब मैं समझदार हो गया हूँ। 

और बेहया, बेहयाई और बेहयापन जैसे शब्दों के सटीक अर्थ जानता हूँ।

लेकिन न जाने क्यों मैं जब भी तुमसे बात करने के लिए तत्पर होता हूँ, तो तुम्हें लिखे एक-एक शब्द पर मेरा अन्तर्मन मुझे 'बेहया' जैसी हजारों गलियां दे जाता है। हमेशा मैं उसे समझा बुझाकर शान्त करता हूँ। मेरा अन्तर्मन मेरे प्रति बहुत ही कठोर आलोचक है। मुझे याद नहीं कि यह पिछली बार मेरी तारीफ कब किया था!!



...खैर, ये बिल्कुल भी नितान्त और व्यक्तिगत बातें हैं! ये बातें सिर्फ मेरे और 'मेरे उसके' के बीच की हैं। लोग इन दोनों के बीच किसी को भी शामिल नहीं करते हैं, चाहे वह कितना भी करीबी ही क्यों न हो! 

...पर आज मैंने वो गोपनीयता भी भंग कर दी, जो हमारे बीच थी। और हाँ एक बात की सफाई दे दूं कि मेरा अन्तर्मन तुम्हारा दुश्मन नहीं है,न ही उसे तुमसे कोई घृणा है। वह बस मेरा कटु आलोचक है।


Pavan Kumar Yadav 

photo: google

शुक्रवार, अप्रैल 16, 2021

कोरोना अपडेट्स


जब भी फेसबुक खोल रहा हूँ तब-तब कहीं न कहीं से बुरी खबर ही आ रही है। परिस्थितियां अत्यधिक विपरीत हैं। ऐसे बुरे समय में हम यदि अपने और लोगों के साथ खड़े नहीं होते हैं तो आने वाले समय में हमें सिर्फ पछतावा ही होगा। काश और यदि के अतिरिक्त कोई शब्द हमारे पास नहीं होगें। जिस प्रकार से पिछले दिनों राजधानी लखनऊ में खबरें आयीं। वे द्रवित करने वाली थीं। लखनऊ के पर्याय रहे योगेश प्रवीण और पूर्व जज की पत्नी को तुरंत उपचार मिला होता तो संभव है हालात कुछ और होते।

पूर्व जिला जज का पत्र


गांव में भी ऊपर ऊपर से हालात समान्य ही प्रतीत हो रहें हैं। लेकिन गंभीरता से पूर्णतया मुख मोड़ा नहीं जा सकता। एक विशेष सत्य ये है कि गांव ही अभी भी देश की ताकत है। आंकड़े कोरोना के जरूर बढ़ रहें हैं पर यहां गेहूं की कटान शीर्ष पर है। चइत की गर्मी से ज्यादा चुनाव की गर्मी है। कुछ व्यक्तियों का दुस्साहस इतना है कि इसे सरकार का चुनावी षड्यंत्र  तक बता रहें हैं। इसमें उनकी कोई गलती भी नहीं है। क्योंकि उनके आस-पास के हालात दैवयोग से सामान्य हैं। वैक्सीन आसानी से उपलब्ध है। टीकाकरण अभियान में बहुत तेजी नहीं है। समान्य रूप से प्रक्रिया चल रही है। जब भी आवश्यक हो, उपलब्ध  है।

'गेहूं की कटाई'


जो कुछ भी परिस्थितियां हो, अब ईश्वर को अपनी उपस्थित का प्रमाण देना चाहिए, क्योंकि कोरोना अब मनुष्यों की परिधि से बाहर जा दिखाई दे रहा है।

'कोरोना की भयावहता प्रकट करती हेडलाइन'


😥😥😥

"सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।"

🙏🏻🙏🏻🙏🏻

© Pavan Kumar  Yadav 

⭕⭕⭕

बुधवार, जनवरी 27, 2021

किसान आन्दोलन Kisan Andolan

सरकार अपने कार्य में सफल हो गई। पिछले दो-तीन महीनों से जिसके कारण जद्दोजहद में जूझ रही थी, आखिर उस को अंजाम दे ही दिया गया। किसानों का दिल्ली आकर प्रदर्शन करना सरकार द्वारा ही बिछाया गया जाल रहा होगा। जिसमें देश का अन्नदाता स्वाभाविक रूप से फंस गया। पिछले दिनों में किसानों द्वारा किए गए प्रदर्शन में शतकाधिक किसान शहीद हो गए। जिसकी किसी को कोई भी परवाह नहीं। सोशल मीडिया से लेकर समाचार पत्रों तक कोई भी इस आवाज को उठाने की जहमत नहीं करता।
यह घटना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इसे पहले ही रोका जा सकता था। परंतु इस दिशा में कोई भी कदम नहीं उठाया गया। बल्कि इनके ऊपर ही झूठा आरोप लगाकर देशद्रोही और आतंकवादी सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है।
ध्यातव्य है कि यदि यहां पर किसान हार जाएंगे तो स्पष्ट तौर पर लोकतंत्र हार जाएगा। क्योंकि इसके बाद भी कई प्रकार के बिल आएंगे जो सामान्य जन की अस्मिता पर चोट पहुंचाएंगे और हम सभी में इतनी हिम्मत नहीं होगी किसका विरोध भी कर पाए। किसानों के विरोध में अपनी आवाज उठा कर जिस प्रकार की देशभक्ति की जा रही है वह देश भक्ति न होकर अन्य प्रकार की भक्ति है। कृपया इससे अपना और समाज का बचाव करें। सरकार से हमारा अनुरोध है कि अपने अहम् का त्याग करें, उदार बनें और किसानों की बात सुने।
#FarmersProtest 
#KisanAndolan 
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

शुक्रवार, दिसंबर 18, 2020

बनारस

मैं जब भी कभी बनारस पहुंचता हूं तो यहां का वास्तु मेरे हृदय को प्रफुल्लित कर देता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो हर पल यहां पर एक नया उत्सव मनाया जा रहा हो। जिसमें  सभी लोग अपनी सामर्थ्यानुसार आहुति दे रहे हों। आखिर वह कौन सा आकर्षण है, जो बार-बार हमें अपनी ओर खींचता है। वह कौन सा रस है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का हृदय सराबोर हो जाता है, डूब जाता है।
इन अनुत्तरित प्रश्नों के जाल में उलझने से बेहतर है यहां के आनंद, उत्साह और इसकी अद्भुत व्यापकता का  स्वागत करें। यहां की विशिष्ट आध्यात्मिक शक्ति  का कुछ अंश ग्रहण कर अपने पूरे शरीर, मन  और हृदय को ऊर्जान्वित करते हुए कार्य सिद्धि की तरफ बढ़े चले।

शुक्रवार, जुलाई 31, 2020

प्रेमचंद जयंती '31 जुलाई'

हिंदी साहित्य को अपने लेखनी के दम पर एक नई ऊंचाई पर ले जाने वाले कथा-सम्राट एवं उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र जी के जन्म दिवस पर बारंबार प्रणाम🙏
प्रेमचंद्र जी का लेखन कार्य एक ऐसे समय से शुरू हुआ, जब हिंदी साहित्य को किसी ऐसे ही श्रेष्ठ रचनाकार की आवश्यकता थी। जो हिंदी साहित्य की धारा को एक नई दिशा दे सके, उन्होंने कथा और उपन्यास की विधा को रोचक बनाते हुए एक शीर्ष स्तर पर पहुंचाने का काम किया। साथ ही मां हिंदी की समृद्धि में भी उनका बहुत बड़ा योगदान है। आज भी उनकी कथाएं और उपन्यास प्रासंगिक हैं।
हिंदी साहित्य में जब भी कोई लेखक कहानी या उपन्यास लिखने की चेष्टा करता है, तो सर्वप्रथम उसे प्रेमचंद्र को पढ़ना अनिवार्य हो जाता है। उनकी शैली से उनकी भाषा से और उनके रोचक दृष्टिकोण से परिचित होना बहुत ही आवश्यक हो जाता है। यदि हमें इस पूरे भारत के बारे में जानना समझना है, तो हमें प्रेमचंद्र को पढ़ना चाहिए! भारत का डीएनए प्रेमचंद्र की कथाओं में समाहित है। 
🙏🏻
~पवन कुमार यादव

शुक्रवार, जनवरी 03, 2020

अन्तर्भाव

अक्सर हम जीवन के किसी ऐसे दोराहे पर फँस जाते हैं जहाँ पर निर्णय लेने और न लेने से अपनी ही हानि होती है। प्रेम में ऐसे दोराहे और चौराहे हमेशा मिलते हैं। प्रेम में पगा हर व्यक्ति इससे भली भांति अवगत है। संभवतः बहुत से लोगों को इसका अनुभव भी अवश्य होगा। लेकिन जब कोई किशोर इसमें डूबता है तो वह इसे कैसे सम्हालता है? अथवा हार कर परिस्थितियों के भरोसे बैठ जाता है? या फिर मैदान से भाग खड़ा होता है?
इस प्रेमकथा में सशक्त पात्र के रूप में एक स्त्री है जो कि इसकी नायिका है। नाम है सुमन। नायक के रूप में प्रभाकर है। इसके अतिरिक्त दो सहायक पात्र भी हैं, रोहित और नेहा। जो समय-समय पर इस कहानी को आगे बढ़ाते.हैं।
इनके अन्तर्ससम्बन्धों के लिए आपको पढ़ना होगा....
'अन्तर्भाव' 

       

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अन्तर्भाव



शनिवार, सितंबर 14, 2019

हिन्दी दिवस

चौदह सितंबर ही वह तिथि है, जिस दिन हिन्दी को देवनागरी लिपि के साथ भारतीय संविधान में स्थान दिया गया था। जिसके कारण इस दिन को हम सभी हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं। यह तो हुई साधारण सी बात। जिससे लगभग हर भारतीय परिचित है। पूरे भारत के लगभग एक तिहाई से भी अधिक हिस्से में बोली जाने वाली हिंदी, अब एक विश्वस्तरीय भाषा बन गई है।

हिंदी संस्कृत के सर्वाधिक करीब है, जिससे हम यह भी मान सकते हैं कि जब से संस्कृत का अस्तित्व सामने आया, तभी से हिंदी भी उसमें कुछ संकेतों के साथ उपस्थित हुई। भारतीय विद्वानों ने हिंदी को केवल एक हजार वर्ष पुरानी भाषा ही माना है जो मुझे बिल्कुल भी प्रासंगिक नहीं  लगता है। शायद वे भारत की अन्य बोलियां अथवा क्षेत्रीय भाषाओं के साथ समन्वय दिखाने के प्रयत्न में ऐसा कर गए हो! परंतु उनके मतों को अस्वीकार करना उस पर टिप्पणी करना मेरे लिए सर्वथा अनुचित होगा। वे सदैव मेरे लिए पूजनीय रहेंगे।
वैदिक काल से ही हिंदी अंश-अंश उभर कर सामने आती रही। इसका वर्तमान रूप एक चरणबद्ध प्रक्रिया का परिणाम है, और वर्तमान रूप आज से सात सौ वर्ष पूर्व ही आमिर खुसरो के काव्य में प्रकट हो चुका था। खुसरो की ही काव्य-भाषा को आधुनिक रुप देने में भारतेंदु हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद जी का योगदान सर्वाधिक उल्लेखनीय है। आधुनिक युग हिंदी भाषा के अस्तित्व के लिए चुनौती बना हुआ है। बड़े-बड़े चिंतक विचारक इसे बचाने का पुरजोर प्रयास भी कर रहे हैं। वे कितने सफल होंगे, यह तो अभी नियति के गर्भ में है। भाषा का एक यह भी गुण है परिवर्तनशील होना और वह लगातार होती ही रहेगी। जब हम उसे व्याकरणबद्ध अथवा किसी सांचे में बांधने का प्रयत्न करेंगे तो यह गति और भी अधिक तीव्र हो जाएगी। उसमें और तेजी से परिवर्तन होने शुरू हो जाएंगे। हिन्दी के विषय में भी यही सत्य है। 
हम सभी मानव हैं तो स्वाभाविक रूप से उसके गुणों से भी हम प्रभावी होंगे ही। हमें जो पसंद है उसे हम बांधने की पुरजोर कोशिश करते हैं। हम यह चाहते हैं कि यह हमेशा ऐसा ही बना रहे और इसी कारण ज्यादातर भारतीय नवयुवक प्रेम में असफल हो जाते हैं क्योंकि वह अपने प्रेमी को स्वतंत्र छोड़ने की बजाय एक मापदंड में बांध देते हैं।
ठीक यही बात हिंदी-भाषा के ऊपर भी लागू होती है। हिन्दी के साथ भी कुछ इसी तरह हो रहा है। हम उसे एक संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की प्रति-मूर्ति में स्थापित कर चुके हैं और उसे पैमाना मानकर,.हम आज के स्वरूप का चिंतन करते हैं। इस चिंतन में हिंदी का एक अलग ही रूप दृष्टिगोचर होता है। आज की दृष्टि में कहा जाए तो हिन्दी का एक भयावह रूप हमारे सामने है। जो दिन प्रतिदिन अत्यधिक विकराल होता जा रहा है। इसके आदर्श स्वरूप के रूप में हमारे समक्ष ‛बाणभट्ट की आत्मकथा’ है। जिसे हम हिंदी का एक मानक रूप मान सकते हैं। इसकी तुलना किसी वर्तमान समय के उपन्यास से करते हैं, तो पाते हैं कि उपन्यास में अपेक्षाकृत अंग्रेजी के शब्दों की भरमार है। हालांकि उनकी लिपि ज्यादातर देवनागरी ही है। हिन्दी भाषा में अग्रेंजी की अधिकता होने के कारण, एक अलग तरह की भाषा एवं एक अलग तरह की गद्य शैली प्रचलन हो गया , जिसे ‛हिंग्लिश’ कहा जाने लगा है। हिंग्लिश दो शब्दों के मेल से बना है। हिन्दी का ‛हिं’ और इंग्लिश का ‛ग्लिश’।  यह दशा सिर्फ हिन्दी के साथ ना होकर भारत की सभी बोलियों और भाषाओं की हुई है। जबकि भारत सरकार के साथ-साथ बड़े-बड़े विद्वान हिन्दी की उन्नति की दिशा में प्रयत्नशील हैं। इसके बावजूद यह एक अलग ही ढर्रे पर चल निकली है। इसके लिए मुख्य रूप से भारत का वो भी क्षेत्र जिम्मेदार है जो हिन्दी-भाषी नहीं है। जब कभी हिंदी के उत्थान की बात की जाती है। तो इसमें उनका विरोध मुखर हो उठता है। उनकी सभ्यता और संस्कृति पर कुठाराघात होने लगता है। लेकिन जब वे स्वयं अंग्रेजी को बढ़ावा देते हैं तो इससे कौन सी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा हो जाती है। उन्हें यह समझना चाहिए कि जितना है खतरा उन्हें अंग्रेजियत से है उतना हिन्दियत से नहीं।
हिन्दी ही क्यों? यह एक साधारण सा प्रश्न है! पूरे भारत में क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का आदान-प्रदान होगा और दोनों भाषाएं समृद्ध होंगी। उनकी शब्द क्षमता में बढ़ोतरी होगी। सबसे सुखद बात यह है कि हिन्दी हमारी सभ्यता और संस्कृति का वहन करने में सक्षम है। ये तो सच है कि भाषा की अपनी गति और अपनी दिशा होती है। परंतु प्रयत्न करने में क्या बुराई है।
हिन्दी की समृद्धि के लिए बहुत से विद्वान प्रयासरत हैं , परंतु उनका प्रयास व्यापक और सामूहिक ना होकर ज्यादातर व्यक्तिगत होता है। जिससे वांछित परिणाम की प्राप्ति नहीं हो पाती है।
अनादिकाल से आदिकाल होते हुए आधुनिक काल तक के भारतीय ऋषियों, गुरूओं एवं मूर्धन्य विद्वानों को मेरा शत-शत प्रणाम है। जिन्होंने अपने कर्तव्यों का पूर्णतः निर्वहन करते हुए वर्तमान की जिममेदारी हमारे कन्धों पर डाल कर आश्वस्त हो गयें हैं कि उनके द्वारा जलायी गयी मशाल को हम अपने आने वाली पीढ़ी के सुरक्षित हाथों में सौंप देंगे। जिससे हिंदी-भाषा उत्तरोत्तर-उत्थान के पथ पर अग्रसर होगी।

पूरे हिंदुस्तान का मान है हिन्दी!!
हर भारतीय की पहचान है हिन्दी!!
जो जोड़े जन-जन के हृदय को,
उस एक सूत्र का नाम है हिंदी!!

-पवन कुमार यादव।

रविवार, नवंबर 04, 2018

सरदार बल्लभ भाई पटेल : व्यक्तित्व और कृतित्व


लौहपुरुष !
जब भी यह शब्द हमारे कर्णपटल को स्पर्श करता है तो हमारे भीतर एक निर्भीक साहसी एवं अटल विचारो वाले एवं लोहे के समान इरादों वाले महापुरुष की आकृति उभर कर सामने आती है। यह आकृति किसी की नहीं बल्कि हमारे देश के पहले उप-प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री `सरदार बल्लभ भाई` पटेल जी की है।
सरदार बल्लभ भाई पटेल जी का जन्म 31 अक्टूबर 1875 0 को बोरसाद  तालुको के करमसद नामक गाँव  में हुआ था । इनके पिता कृषक के साथ-साथ एक स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे । इनकी माँ लाड़बाई , जो एक गृहणी थी। बल्लभ भाई बाल्यकाल  में ही एक दबंग स्वभाव एवं लौह पुरुषतत्व के लिए जाने जाते थे। बचपन की एक घटना के आधार पर हम उनके व्यक्तित्व  को समझ सकते है-
जब वे नडियाड मे पढ़ते थे तब उनके स्कूल के कुछ शिक्षक जबरदस्ती छात्रों को अपने यहा से ही किताबें खरीदने को मजबूर करते  थे, परंतु उन शिक्षकों के खिलाफ जाने मे छात्रों की हिम्मत जवाब दे जाती थी। यह बात जब पटेल जी को पता चली तो उन्होने शिक्षकों  के इस कृत्य को लेकर स्कूल में एक बड़ा आंदोलन छेड़ दिया। इस आंदोलन के प्रभाव के कारण स्कूल चार-पाँच दिनो तक बंद रहा। अंतत: शिक्षकों को झुकना पड़ा। इस प्रकार बल्लभ भाई की स्पष्टवादिता, विचारों की परिपक्वता एवं डटे रहने की प्रवृति का संकेत विद्यार्थी जीवन से ही मिलने लगा था।
सन 1897 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के उपरांत इनका जीवन महत्वकांक्षाओ से भर गया । अबतक जो दुनिया देखी  थी, उसकी अपेक्षा यह अधिक विस्तृत थी। घर कि स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं थी कि उच्च शिक्षा की तरफ कदम बढ़ाया जाय। इसके लिए सर्वप्रथम आत्मनिर्भर बनना जरूरी था । परन्तु इन नौकरियों मे रमना इनकी नियति मे नही था । सन 1900 ई0 मे बल्लभ भाई मुखतारी की परीक्षा पास करके गोधरा में वकालत करने लगे। कुशल वाक्पटुता के कारण थोड़े ही दिनो में इनकी धाक जाम गयी। इनकी कुशाग्रता का परिचय हम एक प्रसंग से भी देख सकते है
एक अंग्रेज़ अफसर था। वह जब भी किसी अभियुक्त की गवाही लेता था, तो उसे शर्मिंदा करने के लिए उसके सामने दर्पण रखवा देता था । जब यही काम उसने बल्लभ भाई के मामले में किया तो उन्होने कहा "इस बात को भी दर्ज कर लिया जाय कि अभियुक्त के सामने  दर्पण रख कर बयान लिया जाता है।" इस पर मजिस्ट्रेट ने कहा कि "ऐसा करने कि कोई जरूरत नही है।" फिर बल्लभ भाई ने प्रत्युत्तर दिया कि “यह दर्पण तो शहादत मे पेश हुआ माना जाएगा और मुकदमें के कागजात के साथ सेशेन्स कोर्ट में पहुंचेगा ।” यह बात सुनकर मजिस्ट्रेट घबरा से शर्म से पानी-पानी हो गया । बाद में उसे अपने इस कुकृत्य पर पछतावा भी हुआ।
काफी समय तक वकालत करने के बाद वे इंग्लैंड गए। बैरिस्टरी कि पढ़ाई मे बल्लभ भाई का प्रथम स्थान था, जो किसी भी भारतीय  के लिए गर्व की बात थी। जब विधि की डिग्री का वितरण करने के लिए सबका स्वागत किया जा रहा था तो सभी की नज़रें इन्हीं पर टिकी थी। स्वदेश लौटने के बाद इनके रुतबे मे वृद्धि हुयी, साथ ये अपने भाई विठ्ठल जी से प्रभावित होकर अपना जीवन देशहित में अर्पित कर दिया। मड़ौसा में एक भाषण मे इन्होने कहा –“स्वतन्त्रता चाहिए तो इस देश को सन्यासी होना चाहिए, स्वार्थ त्याग करके सेवा करनी चाहिए।” सन 1915 ई0 में बल्लभ भाई गुजरात सभा के सदस्य बनें। अपने परिश्रम एवं सक्रियता के कारण आम जन में इनकी थोड़ी ख्याति भी बढ़ी।  तत्कालीन सामाजिक स्थिति को भाप कर हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाए रखने के लिए कायदे-आजम मोहम्मद जिन्ना का जोरदार स्वागत किया गया । साथ ही साथ इस सभा की अध्यक्षता कर रहे महात्मा गांधी जी ने जिन्ना से भी गुजराती में भाषण दिलवाया  । यह पहली ऐसी सभा थी जहां पर अंग्रेजी की बजाय गुजराती मे सम्पन्न हुयी थी । गोधरा की इस सभा की तीसरी विशेषता यह थी की धीरे –धीरे ये समूह देश की राजनैतिक चेतना को हवा देने लगे । अभी तक जो बैठक सिर्फ एक वार्षिक उत्सव अथवा हर्षोल्लास के लिए हुआ करती थी उसे गांधी जी एवं पटेल जी ने अपनी ऊर्जा से देशहित की तरफ अग्रसरित कर दिया था ।

गुजरात मे पड़े एक भीषण अकाल के बाद जब अंग्रेजी हुकूमत देशवासियों की मदद करने से मुकर गयी तब सन 1918 ई० मे खेड़ा में (जनपद-खेड़ा) किसानो की एक बड़ी सभा का आयोजन किया गया । इसमे बम्बई की हेमरूल के सदस्य भी सम्मिलित हुये । इस सभा का सभा पति होने के कारण पटेल जी ने एक जोरदार भाषण दिया। अपनी भाषा कला से जन-जन मे ऊर्जा का संचार किया एव देशभक्ति की अलख जगाई । यहाँ उनके द्वारा दिये गए भाषण का कुछ अंश रखना आवश्यक है । जिससे हम  उनकी सीधी सपाट और स्पष्ट भाषाशैली के बारे में जान सकेंगे-
“इस लड़ाई में सारे देश में आग लग जाएगी । दु:ख सहन किए बिना सुख नही मिलता और मिल जाए तो वह लंबे समय तक नहीं टिकता । मजबूत और दृढ़ विचारों की हो, इसी में राज्य की शोभा है। नालायक और डरपोक प्रजा की वफादारी में सार नहीं। निडर स्वाभिमान की रक्षा करने वाली वफादार प्रजा ही सरकार को शोभा देती है।”
इन आंदोलनो एवं सभाओं के जरिये बल्लभ भाई गांधी जी के और करीब आ गए थें वह गांधी जी के विचरों एवं उनकी कार्यक्षमता से अत्यंत प्रभावित थें । गांधी जी भी उन्हे एक अच्छे सामाजिक कार्यकर्ता के रूप मे बहुत मानते थे । गांधी जी द्वारा पटेल जी के लिए कहे गए शब्दो से ही उनकी पारखी दृष्टि का पता चलता है।
“यह गाँव बल्लभ भाई का है बल्लभ भाई यद्यपि अभी आग में  है और उन्हे अच्छी तरह तपना है, परंतु मेरा ख्याल है कि उसमें कुन्दन बन कर निकलेगें।
एक अन्य आम जन सभा को सम्बोधित करते हुये गांधी जी ने बल्लभभाई के सम्बन्ध में कहा –“सेनापति कि चतुरता उसके सहायकों की पसंद पीआर निर्भर है। अनेक लोग मेरी बात मानने को तैयार थे, किन्तु मेरे सामने उठा की मेरा उपसेना पति कौन हो? इसी समय मेरी दृष्टि बल्लभभाई  पर पड़ी। विचार उठा की अक्खड़ आदमी कौन है, और यह क्या काम करेगा। किन्तु जैसे–जैसे वे मेरे निकट आए, मेरा उनपर विश्वास बढ़ता गया और वे मेरे लिए अनिवार्य हो गए। यदि  मुझे  बल्लभ भाई न मिले होते तो जो काम हुआ है, वह न होता ।”
गांधी जी के संपर्क में आने के पश्चात बल्लभ भाई अपने आप सम्पूर्ण रूप से देश के लिए समर्पित कर दिये । सान 1924 ई० और 1927ई० में बल्लभ भाई अहमदाबाद म्यूनिसिपैलिटी के चेयरमैन चुने गए । इसी क्रम में सन 1932 ई० में जब वे गांधी जी के साथ यरवदा जेल में थे तो गांधी जी ने अपने अनुभव का उल्लेख करते हुये लिखा था- “मुझको उनके अद्वितीय शौर्य का पता था पर कभी मैं उनके साथ नही रहा था , जिसका सौभाग्य मुझे इन सोलह महीनों में प्राप्त हुआ । जिस स्नेह से उन्होने मुझे प्लवित कर दिया उससे मुझको अपनी स्नेहमणीमटा का स्मरण हो आता है। मुझे यह नहीं मालूम था कि उनमे इतना मातृ तुल्य गुण है ।”
देश के प्रति अपनी निष्ठा का निर्वहन करते हुये 15 अगस्त 1947 को आजाद भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री चुने गए। इसी समय सरदार जी की अध्यक्षता में देशी रियासतों को सुलझाने के लिए रियासती विभाग की स्थापना की गयी । पटेल जी ने अपने लौह पुरुषत्व के बल पर 562 रियासतों का विलय करके इस देश को अखंड भारत का दर्जा दिलवाया। इसी कारण इन्हे भारत का बिस्मार्क एवं लौह पुरुष भी कहा जाता है । निरंतर संघर्षपूर्ण जीवन जीने के कारण इन्हे पुस्तक रचना का अवकाश प्राप्त न हुआ। आम सभाओ एवं पत्रों को समेंट कर उनके विचारो का पोषण आज भी समाज में कायम है।

बल्लभ भाई  के व्यक्तित्व एवं कृतत्व के सम्बन्ध मे प० जवाहरलाल नेहरू जी ने कहा था-
"वे इच्छा और उद्देश्य में दृढ़ हैं,एक महान संगठनकर्ता हैं। भारत की स्वाधीनता केआर उद्देश्य में लगन के साथ लगे रहे है और उन्होने आवश्यक शक्तिशाली प्रतिरोध की सृष्टि की है।कुछ लोग उन्हे पसंद नि कर सके क्योकि वे उनसे सहमत नही हो सके । परंतु अधिकांश देशवासियो ने उन्हे अपनी रुचि का नेता पाया है। उनके साथ अथवा मातहत काम करके हिंदुस्तान की स्वतन्त्रता की स्थायी नीव डाली है। उनके लिए, जिन्हे उनके साथ काम करने का सौभाग्य मिला है , वे शक्ति स्तम्भ की भाति रहे है... यह बहुत बड़ी कहानी है जिसे हम सब जानते है, इसे इतिहास के अनेक पृष्ठों मे लिखा जाएगा, जहा उन्हे नवीन भारत का निर्माता था एकीकरणकर्ता बतलाकर उनके विषय में अन्य भी अनेक बाते लिखी जायेगी ।
घर परिवार एवं देश-समाज की तमाम जिम्मेदारियो को विधिवत पूरा करने के पश्चात आखिरकार वह काली रात 15 दिसंबर 1950 ई० को आ ही गयी, जब देश का पारस सदा-सदा के लिए ईश्वर के परम धाम को प्रस्थान कर गया। पारस काही भी हो पर उसकी गुणवत्ता में कभी कोई ह्रास नहीं होता । पारस पुरुष  के रूप में सरदार बल्लभ भाई पटेल के विचार आज भी हमे अपने इरादो को लौह बनाने के लिए प्रेरित करते है । कवि नीरज ने इस सम्बंध मे कहा है-

   “ न जन्म कुछ न मृत्यु  कुछ बस इतनी सिर्फ बात है।     किसी की आँख खुल गयी, किसी को नीद आ गयी ॥ ”



शुक्रवार, अक्तूबर 19, 2018

अपने अंदर के राम को जीवित करें

हर बार की तरह इस बार भी दशहरा पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। रावण के बड़े-बड़े पुतले बनाए जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो भारी-भरकम शरीर वाले रावण की मुखाकृति हम पर अट्ठाहास करती हुई कह रही हो, कि तुम सब मुझे अपने हृदय से नहीं निकाल पाओगे। मैं यूं ही हर वर्ष आऊंगा। हर वर्ष जलाओगे। लेकिन मुझे मार नहीं पाओगे। हमेशा वह जलकर राख बनेगा।

अगली बार पुनः उसी सम्मान के साथ दोबारा खड़ा होकर हमारी नादानियां पर ठहाका लगाते हुए पूछेगा - मैं अधर्मी, अन्यायी, पथभ्रष्ट, राक्षस कुल का अवश्य हूं, पर मुझे मारने वाली लाखों-करोड़ों की भीड़ में क्या कोई राम है? या कोई ऐसा जिसमें राम जैसी शक्ति, सामर्थ्य और पुरुषत्व हो। हम निरुत्तर हो जाते हैं! इस आत्मग्लानि से बचने का एक रास्ता है! हमें अपनी भाषा में थोड़ा परिवर्तन करने की आवश्यकता है। यदि हम आम-जन से पूछे कि दशहरा का उद्देश्य क्या है, या हमें अपने अंदर क्या परिवर्तन करना चाहिए? इसका जवाब एक नई नपी-तुली सीधी और सपाट भाषा में देता हुआ यही कहेगा, कि सबसे पहले ‘अपने अंदर के रावण को मारो’ और अगर कोई बौद्धिक व्यक्ति है तो वह इसे अभिधात्मक रूप में कहेगा कि ‘रावण को मारने का अर्थ अपने अंदर की बुराई को मारो!’ हजारों वर्षों से हम रावण को जलाते आ रहे हैं और आने वाले हजारों वर्ष तक जलाते रहेंगे। हम भाषा में एक सामान्य सा परिवर्तन करके समाज को एक सकारात्मक दिशा दे सकते हैं।
कैसे?
आज से ‘अपने अंदर के रावण को मारो’ की बजाय ‘अपने अंदर के राम को जीवित करो’ कहने की परंपरा का विकास करना चाहिए।
जैसे रावण बुराई का प्रतीक है और वह सभी के अंदर मौजूद है। ठीक उसी प्रकार राम अच्छाई के प्रतीक हैं वह भी सभी के अंतर्मन में स्थापित हैं, बस जरूरत है तो उनको हमें फलने-फूलने का मौका देने की। जिससे समाज के आत्मिक विकास को सकारात्मक दिशा मिलेगी।

आपसे अनुरोध है कि इस बार आप भी ‘अपने अंदर के राम को जीवित करें!’ तभी का दशहरा सफल होगा।
दशहरा की अनंत शुभकामनाएं।

- पवन कुमार यादव।