मन बहुत व्यथित है। एक संस्मरण साझा करना चाहता हूं। करना तो नहीं चाहता, पर बाध्य हूँ। आज मैं अपने मन और हृदय के बीच के असंतुलन को व्यवस्थित कर पाने की दशा में नहीं हूँ, अथवा अक्षम हूँ। पिछले कुछ दिनों से जब भी कलम उठाया हूं, उसके पीछे कोई सुखद कारण नहीं बन सका। ऐसा कब तक होगा, कुछ कह भी नहीं सकते।
पुरानी यादों का संस्मरण तब बहुत सुखदाई होता है, जब संबंधित व्यक्ति उसे पढ़ कर अपनी प्रसन्नता और उत्साह प्रकट करे। लेखक का दुर्भाग्य यह है कि जब अपूर्णता अपने चरम पर होती है, तब उसके लेखनी की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। मेरे लिए इसका लेखन किसी पुराने रोग जितना पीड़ादायी है।
आजमगढ़ के एक छोटे से गांव से मुझे अपने ननिहाल खलीलाबाद गए हुए तीन वर्ष बीत चुके थे। कक्षा सात में मेरा नामांकन सरस्वती विद्या मंदिर, खलीलाबाद में हो गया था। वहीं पर मेरी मुलाकात रॉबिन्स से हुई थी। साफ रंग एवं छोटे कद-काठी का औसत से भी कम विकसित शरीर, जिसे देखकर मेरे अंदर का सामान्य बालपन यही सोच कर खुश हो जाता था कि इसे मैं आसानी से पटक दूंगा। उसकी शारीरिक दुर्बलता देखकर निसंदेह मेरे मन में यह विचार सबसे पहले आया था। परंतु शारीरिक सबलता और बुद्धिमत्ता दोनों का एक साथ मेल प्रायः कम ही देखने को मिलता है। रॉबिन्स बौद्धिक रूप से काफी मजबूत था। इसे स्वीकार करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि वह जिस वर्ग ('क' वर्ग) में था, वह अच्छे और पढ़ने लिखने वाले विद्यार्थियों का था। कक्षा सात और आठ के दौर में मेरा और रॉबिन्स का बस इतना सा परिचय था कि वह मेरे स्कूल का, मेरे ही कक्षा में पढ़ने वाला एक विद्यार्थी था। कक्षा नौ तक आते-आते परिस्थितियों में काफी परिवर्तन हुआ। पहली बार कक्षा नौ में जाने पर पढ़ाई की अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हुआ और थोड़ा डर भी था कि अब हम बड़ी क्लास में है। यह वही दौर भी था, जहां पहली बार गणित और विज्ञान जैसे विषयों की कोचिंग के लिए भागदौड़ शुरू की गई। मेरे बड़े भैया ने मुझे रामललित सर जी के पास पढ़ने को भेज दिया। सर जी का घर रॉबिन्स के घर से बहुत करीब था। बीते दो वर्षो में यह पहला मौका था, जब हम एक अच्छे दोस्त हो गए थे। सर जी के घर से पढ़ने के बाद अक्सर हम साथ में ही स्कूल जाते थे। सब कुछ बड़ा सामान्य सा था।
एक घटना याद आती है जो हमारी हल्की-फुल्की नोंक-झोंक को दर्शाती है। रॉबिन्स शायरी का बड़ा शौकीन था। इस बात का पता मुझे इस घटना के बाद ही चला।
एक दिन अखबार में कुछ शायरी (शायद चार या पांच रही हो) प्रकाशित हुई थी। उसकी कटिंग लेकर मैं स्कूल पहुंचा। कक्षा के अंदर आते ही मैंने सारी की सारी शायरियाँ पढ़ कर उसे सुना दिया। उनमें से कुछ रॉबिन्स को बहुत पसंद आयी। उसने उन सभी को मेरे समक्ष कॉपी में लिखवाने का प्रस्ताव रखा।
इसे आप मेरी मानसिक संकीर्णता समझें अथवा बालपन का हठ। मैंने इसे तुरंत अस्वीकार कर दिया। कहीं न कहीं मेरे मन में यह भी अहंकार था कि मैं उससे ज्यादा ताकतवर हूं जो भी होगा अकेले ही सम्हाल सकता हूँ। अखबार की कटिंग को मैंने सामाजिक विषय (विषय स्पष्ट नहीं) की कॉपी में रख लिया। बात आई गई और खत्म हो गई। अब शायरी, अखबार और उसके टुकड़े की बात मेरी स्मृति से उतर चुकी थी। स्कूल की छुट्टी होने पर रॉबिन्स मेरे पास आया और बोला
'पवन मुझे सामाजिक विषय की कॉपी दे दो! दो-तीन दिन का अवकाश है। जिससे मैं अपना विषय पूरा कर लूंगा।'
घर पहुंचने की जल्दी में, मैंने बहुत सोच-विचार नहीं किया। बैग से कॉपी निकाली, थमा दिया उसे। और चला आया अपने रास्ते। आधे रास्ते में पहुंचकर जब मुझे अपनी सारी मूर्खता याद आयी। तब तक मेरे हृदय की गति बढ़ चुकी थी। बार-बार मुझे अपने किए पर पछतावा हो रहा था? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था? क्या हो जाता यदि लिखवा देता? कौन सा वह मुझसे बहुत मूल्यवान वस्तु मांग रहा था? हालांकि यह तो मेरी वर्तमान की सोच है। तब की तो, जो करना था मैं कर चुका था। अगले बार जब स्कूल खुला तो सबसे पहले मैं रॉबिन्स से मिला, अपनी कॉपी मांगी। कॉपी तो तुरंत मिल गई। पर कटिंग को देने के लिए छुट्टी तक का समय मांगा। पूरे दिन मैंने उसे बहुत मिन्नतें की पर हर बार उसका एक ही जवाब आता, छुट्टी में देगें। मेरा मन खिन्न और दुखी हो चुका था। छुट्टी में मैंने उससे मांगना उचित नहीं समझते हुए, चेहरे पर दुखी एवं कातर भाव लिए हुए घर की ओर लौटना मुनासिब लग रहा था। बाद में रोबिन स्वयं मेरे पास आया और मुस्कुराते हुए अपने शर्ट की थैली में हाथ डाला, वही अखबार की शायरियों वाली कटिंग धीरे से मेरे हाथों में थमा दिया। मेरे चेहरे की उदासी एकाएक खुशी में परिवर्तित हो गयी। बड़ी तत्परता से हम दोनों एक दूसरे से हाथ मिलाए और मुस्कुराते हुए घर की ओर चल दिये।
हाईस्कूल तो हमने साथ में ही पास किया। उसके बाद वह खलीलाबाद के ही एक कॉलेज में एडमिशन ले लिया, वहीं से आगे की पढ़ाई शुरू की और वहीं से ही पलायन मेरे जीवन का सत्य बना। जो हमेशा मुझे इधर से उधर ढकेलता रहा। न जाने कहां जाकर स्थिर हो पाऊंगा।
उपरोक्त घटना के बाद से मैं भली-भांति समझ गया कि प्रकृति सबको अपनी ताकत और कमजोरी देकर भेजती है। हमें किसी का भी अहंकार नहीं करना चाहिए। रॉबिन्स के माध्यम से हम इस नश्वर शरीर के प्रत्यक्ष गवाह बने। उसे रक्त कैंसर पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया था।
16 मई 2021 यानी कल सुबह तक उसका शरीर उसकी आत्मा का साथ छोड़ चुका था।
हमारी बाकी मित्रों से भी उसके विषय में बात होती थी। जो उसकी हंसी और खुशमिज़ाजी की बड़ी तारीफ करते थे। इस हंसी और खुशमिज़ाजी के पीछे क्रूर समय अट्टाहास कर रहा था। जो आज सुबह उसके शरीर को अपनी आत्मा से अलग कर दिया। अपनी मान्यता एवं धारणा के आधार पर हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनके समस्त मानवीय भूलों को क्षमा करके, उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान प्रदान करें।
मुझे इस बात की शर्म एवं ग्लानि है कि उसके जीवित रहते हुए मैं कुछ भी नहीं कर सका। मृत्यु के पश्चात भी एक पुष्पांजलि तक अर्पित न कर सका। फिर आज ये हजार शब्दों की शब्दांजलि अर्पित करने का क्या लाभ? बस इसी दिखावे तक ही जीवन की सार्थकता सिमट कर रह गयी है? संभवतः आज का परिवेश ही ऐसा है। किसी को किसी की भी नहीं पड़ी। कोई भी अपनी परेशानियों से थोड़ा भी ऊपर नहीं उठ पा रहा है। मैं स्वयं भी इन बेड़ियों से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा हूँ।
रॉबिन्स की हंसी के पीछे की भयावहता का विकराल रूप उसके अकेलेपन में अवश्य ही सुस्पष्ट एवं मुखर हो उठता होगा। वह जिस स्थान पर खड़ा था, वहां से जीवन का अंतिम बिंदु स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता था। इस अंतिम बिन्दु के ज्ञात होने के पश्चात जीवन की दशा और दिशा कैसे तय की जा सकती है? वह
जिस अन्तर्द्वन्द्व में था, उसका अंदाजा शायद ही किसी को हो?
यदि आप सोचने-समझने बैठेंगे तो दिमाग सुन्न हो जाएगा।
...आखिर !आज वह सब कुछ समाप्त हो गया, जो उसके जीवित रहने का कारण था! हम अपने पुराने सहपाठी एवं परम मित्र श्री रॉबिन्स सिंह जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हृदय की गहराइयों से प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर उन्हें अपने परमधाम में स्थान दें, एवं उनके परिवार को इस दुख की घड़ी से लड़ने की शक्ति प्रदान करें।
ईश्वर उनके परिवार एवं समस्त बन्धुओं के दुखों का निवारण करें।
~पवन