समाज की परिभाषा व्यक्तियों का समूह न होकर इससे बिल्कुल उलट है।
लेपियर के कथनानुसार
“समाज मनुष्यों के एक समूह का नहीं बल्कि उनके बीच होने वाली अन्तर्क्रियाओं और उनके प्रतिमानों को ही हम समाज कहते हैं।”
यह परिभाषा वैज्ञानिक रूप से सही भी है। सिर्फ कुछ व्यक्तियों को मिलाकर हम समाज का निर्माण नहीं कर सकते। समाज की स्थापना के लिए हमें उनके बीच स्वाभाविक रूप से उत्पन्न सम्बन्धों पर गौर करना होगा। उदाहरण के तौर पर एक छोटा बालक जब घर पर होता है तो उसका सम्बन्ध एक बेटे और भाई का होता है, जब विद्यालय में होता है तो विद्यार्थी हो जाता है, खेल के मैदान में खिलाड़ी हो जाता है, दुकान पर ग्राहक हो जाता है और दोस्तों संग दोस्त हो जाता है। समाज इन्हीं सम्बन्धों पर निर्भर है। सामाजिक सम्बन्ध ही उसके प्राण हैं न कि व्यक्ति विशेष का समूह।
विभिन्न तरह के विद्वानों ने समाज को विभिन्न तरह से परिभाषित किया है-
मैकाइवर और पेज के अनुसार “समाज रीतियों, कार्यविधियों, अधिकार व पारस्परिक सहायता, अनेक विभाजनों, मानव व्यवहार के नियंत्रणों तथा स्वतंत्रताओं की व्यवस्था है। इस सदैव परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और सदैव परिवर्तित होता रहता है।” इसके अलावा मैकाइवर ने समाज को परिभाषित करने के कई छोटे बिन्दुओं का भी उल्लेख किया है-
परस्पर सहयोगः- यह समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है क्योंकि सहयोग भावना ही एक सम्बन्ध को जन्म देती है। यदि किसी स्थान पर किसी को सहायता की आवश्यकता है तो एक सामाजिक प्राणी होने के कारण हमारा ये फर्ज बनता है कि हम उसकी यथावत मदद करें, अंजान ही सही एक सम्बन्ध तो स्थापित होगा।
अधिकारः- समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए जरूरी है कि लोगों को उनका अधिकार मिले। इसमें कुछ विशिष्ट लोग (ग्राम प्रधान, विधायक और संसद आदि) भी होते हैं जिन्हें ये अधिकार दिया जाता है कि वो अपने अधिकारों का प्रयोग करके लोगों के अधिकारों की रक्षा करें। गुलामी एवं दासता की भावना एक निम्न कोटि के समाज का परिचायक है। इसलिए समाज में अधिकार की महत्ता सर्वाधिक है।
इसके अलावा मैकाइवर ने कार्य प्रणालियों, स्वतंत्रता समूह तथा विभाग और मानव-व्यवहार के नियंत्रण के बारे में भी चर्चा की थी। ये सभी बिन्दु समाज की परिभाषा के ही अंग है।
समाज को समझने के लिए मोरिम गिन्सबर्ग की भी परिभाषा देख लेते हैं। उनके अनुसार “समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह है जो कुछ सम्बन्धों अथवा व्यवहार की विधियों द्वारा संगठित तथा उन व्यक्तियों से भिन्न है जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा बंधे नहीं हैं अथवा जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं।” गिन्सबर्ग ने भी समाज को सम्बन्धों का जाल कहा है। समाज में व्यक्तियों का अध्ययन केवल इसलिए किया जाता है क्योंकि व्यक्ति के बिना सम्बन्धों का अस्तित्व काल्पनिक है।
समाज में मुख्य रूप से कुल 10 धर्म है। जो पूरे विश्व में अपनी विशेषता के आधार पर फैले हुए है। जैसे- भारत है तो एक धर्म निरपेक्ष देश परन्तु मुख्य रूप से यहां की आबादी हिन्दू है। चीन का अपना अलग पारम्परिक धर्म है। जापान मुख्य रूप से शिंटो धर्म का पालन करता है। यूरोपवासी ईसाइयत को मानते हैं।
सभी धर्मों एवं उनके सम्प्रदायों का संक्षिप्त परिच -
ईसाईः- ईसाई धर्म के प्रवर्तक ‘ईसा मसीह’ थे। इसका जन्म 4 ई0पू0 येरूशलेम के निकट वैथलेहम नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम ‘जोजफ’ तथा माँ का नाम मरियम था। कहा जाता है कि इनकी माँ ने कुंवारेपन में ही ईसा मसीह को जन्म दिया और उनका नाम ‘यीशु’ रखा। ईसा मसीह को 33 ई0 में रोमन गवर्नर पोरियम ने सूली पर चढ़वाया था। एक जनश्रुति यह भी है कि मरने के तीसरे दिन ‘ईसा मसीह’ जिन्दा हो गये थे। पुनः तीसरे दिन वापस आकर अपने शिष्यों को उपदेश दिये थे। ईसाईयों का प्रमुख चिन्ह ‘क्रास’ है। ईसाई त्रित्व में भरोसा रखते है। ईश्वर-पिता, ईश्वर-पुत्र (ईसा मसीह) और पवित्र आत्मा। इस धर्म प्रचलन सर्वाधिक यूरोप में है। पूरे विश्व में इनकी संख्या सर्वाधिक 2.2 अरब है। जो सम्पूर्ण मानव-जगत का 31.5 % है। ईसाई धर्म आगे चलकर कई सम्प्रदायों में बंट गया, जिसमें से प्रमुख रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेट, कोपिमिइस्म और आर्थोडाक्स है।
इस्लाम धर्मः- इसके संस्थापक हजरत मोहम्मद साहब थे। इसके पिता का नाम ‘अब्दुल्ला’ और माता का नाम ‘अमीना’ था। इनका जन्म 570 ई0 में मक्का में हुआ था। ‘कुरान’ इस्लाम का पवित्र ग्रंथ है। मोहम्मद साहब की मुत्यु के बाद इस्लाम भी दो सम्प्रदायों में बंट गया। पहले ‘सुन्नी’ जो मोहम्मद साहब की वाणी एवं विचारों में भरोसा रखते थे, एवं दूसरे ‘शिया’ जो ‘अली’ के विचारों में भरोसा रखते थे। ‘अली’ मोहम्मद साहब के दामाद थे। लोग उन्हें उचित उत्तराधिकारी मानते थे। ईस्लाम की सबसे पवित्र जगह मक्का है। मक्का से मदीना के बीच की यात्रा को हज कहते हैं। इस धर्म के अनुयायियों का मानना है कि जीवन में एक बार हज यात्रा अवश्य करनी चाहिए। पूरे विश्व में ईस्लाम को मानने वाले करीब 1.6 अरब लोग हैं।
हिन्दू धर्मः- इस धर्म की शुरुआत के बारे में कोई प्रमाणिक तथ्य नहीं मिलते हैं, परन्तु यह शैव और वैष्णव धर्म का सम्मिलित रूप अवश्य है। शैव धर्म के कुछ अवशेष हड़प्पा सभ्यता से मिले हैं जिससे समय का लगभग अनुमान लगाया जा सकता है। वास्तव में ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति ‘सिन्धु’ से हुई है। ‘सिन्धु’ शब्द सिन्धु नदी के किनारे रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। कालान्तर में यह सिन्धु से हिन्दू में परिवर्तित हो गया। इसमें कर्मों के आधार पर व्यक्तियों को 4 भागों में बाँटा गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन चार वर्गों में कई प्रमुख जननजातियाँँ भी शामिल हैं। पूरे विश्व में हिन्दू 13.95% हैं। जिनकी संख्या लगभग 1 अरब है।
बौद्ध धर्मः- बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध थे। इनका जन्म लुम्बिनी में हुआ था। इनके पिता का नाम शुद्धोधन तथा माता का नाम माया देवी था। इनके जन्म के समय जब राजा शुद्धोधन ने इनके भविष्य के बारे में जानकारी ली तब पता चला कि ये सन्यासी बनेंगे। महाराज ने इन्हें उत्तराधिकारी बनाने का हर सम्भव प्रयास किया। 16 वर्ष की अवस्था में शादी कर दी। इनका एक पुत्र भी था ‘राहुल’। भाग्य तो इनका दैवयोग से चल रहा था। इसलिए सारे प्रयास विफल हो गये। एक दिन गौतम बुद्ध अपने सारथी के साथ राज्यभ्रमण पर निकले । रास्ते में उन्हें एक बूढ़ा व्यक्ति, एक बिमार व्यक्ति, एक शव एवं एक सन्यासी दिखा। ये सारे दृश्य इन्हें इतना व्यथित किये कि ये सब कुछ छोड़कर सत्य प्राप्ति के लिए निकल गए। ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ‘लाइट ऑफ एशिया’ कहलाए जाने लगे। बौद्ध धर्म की प्रमुख पुस्तकें विनयपिटक, सूत्रपिटक और अभिधम्म पिटक एवं त्रिरत्न बुद्ध, धम्म और संघ है। बौद्ध धर्म का सबसे प्रिय त्यौहार वैशाख पूर्णिमा है। इसीदिन गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति एवं महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था। गौतम बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म भी दो भागों में (हीनयान और महायान) विभक्त हो गया। पूरे विश्व में बौद्ध धर्म को मानने वाले 37.6 करोड़ लोग हैं। जो 5.25% के बराबर हैं।
जैन धर्मः- जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर स्वामी ऋषभदेव थे। इन्होंने ही जैन धर्म की स्थापना की थी। स्वामी ऋषभदेव के बाद कुल एक-एक करके 24 तीर्थंकर हुए। 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। जिनके समय में जैन धर्म अपने चरम पर था और आज भी फलफूल रहा है। तत्कालीन समयाघात के कारण जैन धर्म भी दो भागों में बंट गया। पहला श्वेताम्बर तथा दूसरा दिगम्बर। सभी तीर्थंकरों की जीवनी भद्रबाहु रचित ‘कल्प-सूत्र’ में मिलती है। पूरे विश्व में जैन अनुयायियों की संख्या 42 लाख है।
इसके अलावा और भी धर्म और सम्प्रदाय है जैसे चीन का पारम्परिक धर्म (5.5% अथवा 40 करोड़), सिख धर्म (2.3 करोड़) और जापानी शिंटो धर्म (40 लाख)। विश्व समुदाय का एक बड़ा हिस्सा (15.35 प्रतिशत) नास्तिक है, जिसकी आबादी 1.1 अरब है।
सामाजिक कुरीतियों में सबसे ज्वलंत मुद्दा लड़कियों अथवा महिलाओं का है। आजादी के 70 बरस बाद भी उन्हें वो सम्मान, सुरक्षा और समानता नहीं मिल पायी। जिसकी वो अधिकारिणी हैं। यदि संवैधानिक रूप से चर्चा करें तो सारे अधिकार है परन्तु कहीं न कहीं ये पुरूषवादी समाज की सोच का ही नतीजा है जो उन्हें सिर्फ एक घरेलू कार्य करने वाली प्राणी के रूप में देखते हैं। बस इस बात से थोड़ी संतुष्टि जरूर मिलती है कि परिवर्तन जारी है। वो अपनी बौद्धिकता का प्रदर्शन हर क्षेत्र में कर रही है और सफल भी हो रही है। उन्हें अपने अधिकार की पहचान हो गयी है। हाल ही में न्यायालय द्वारा महिलाओं के पक्ष में एक स्वर्णिम फैसला सुनाया गया ‘तीन तलाक पर’। ये संकेत उनके अच्छे भविष्य की तरफ बढ़ाया गया एक छोटा सा कदम है पर लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई। अपने अधिकार के लिए उन्हें खुद लड़ना होगा। हम अपना सहयोग और समर्थन देकर उनका हौसला आफजाई कर सकते हैं।
भारत की पाँच हजार पुरानी सभ्यता होते हुए भारतीय समाज आज तक धर्म का मर्म नहीं समझ सका। यदि सभी धर्मों का उद्देश्य वर्चस्व की जंग को जीतकर शीर्ष स्थान पर काबिज होना है तो मैं आज ही इन धर्मों से किनारा कर लूँ। क्या मंदिर में फल चढ़ाने से अथवा मस्जिद में चादर चढ़ाने से ईश्वर प्रसन्न होगा? इससे केवल धर्म के ठेकेदारों का ही फायदा होगा। जो हम सभी की भावनाओं के साथ खेलते हैं। उन्होंने फतवा जारी किया और हम निकल पड़े एक दूसरे का खून बहाने। अगर उन्हें आपत्ति है तो खुद उतरें संघर्ष के मैदान में। कुछ तो इतने नीचे गिर गए हैं कि साधु, संत और बाबा जैसे वात्सल्यपूर्ण शब्दों का घोर अपमान किया। इन सब में वो दोषी तो हैं ही, उनके साथ हम भी उतने ही गुनाहगार हैं जो इनका समर्थन करते हैं। इक्कीसवीं सदी में भी लोग इन ठेकेदारों से चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं। कभी एकान्त में बैठकर शांतिपूर्वक चिंतन करें, अपनी-अपनी धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन कर विचार करें। उन बातों को अपने जीवन उतारें। फिर देखिए ये दुनिया हमारी कल्पना से ज्यादा सुन्दर हो जायेगी।
ये तो बस उदाहरण है। इसके अलावा बालश्रम, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी कुप्रथाएं आज भी समाज में मौजूद हैं कहने को तो ये कानूनी रूप से गलत है परन्तु सिर्फ कानून बना लेने से वर्षों पुरानी रूढ़ियों को समाप्त किया जा सकता है? उसके लिए जरूरी है कि लोगों को इसके बारे में जानकारी दी जाए।
मेरे एक मित्र ईस्लाम मतावलम्बी है। उनके अनुसार आपकी हज यात्रा तबतक पूरी नहीं हो सकती जबतक आपके मोहल्ले के लोग खुश न हों। कहने का आशय यह है कि यदि आपका पड़ोसी भूखा सोया है तो आपकी हज यात्रा या फिर चारो धाम यात्रा व्यर्थ है। जहां तक इंसानों के बीच मतभेद की बात है तो यह संभव है। जब हमारे विचार एक दूसरे से मेल नहीं खाते तब छोटी-मोटी बातों को लेकर मनमुटाव सम्भव होना लाजिमी है। आधुनिक समय में इन छोटी-छोटी बातों का राजनीतिकरण करके धर्म एवं सम्प्रदाय में तोड़कर उनका इस्तेमाल किया जाता है। वर्तमान परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए ये कहा जा सकता है, कि नेताओं में भाव पक्ष नगण्य हो गया है। तभी तो वोटो का ध्रुवीकरण करते हैं। लोगों को तोड़ते हैं। पहले धर्म के नाम पर फिर धर्म को सम्प्रदाय के आधार पर। राजनीतिक दृष्टि से आज का समय बहुत महत्वपूर्ण है। यदि ऐसे समय पर हम कुछ कर न सके तो हमारी अगली पीढ़ी का भगवान ही मालिक है। इस समस्याओं से उबरने का एकमात्र उपाय ‘शिक्षा’ है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को शिक्षित किया जाय इस स्तर तक कि वो देश की राजनीति को समझ सकें, इस स्तर तक और इस समाज को विखण्डित होने से बचाने के लिए तत्परता से आगे आयें।
एक अच्छे समाज की स्थापना का पूरा भार युवाओं पर होता है। क्योंकि वो अपनी उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहाँ से वह वरिष्ठ नागरिकों को सहारा देने के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ी का निर्माण करते हैं। इसके साथ ही उनकी बुद्धि और भुजाओं में सामर्थ्य भी होती है, जिसके बल पर कई क्रान्तिकारी बदलाव संभव है। इसलिए स्वच्छ समाज निर्माण में ये एक शीर्ष इकाई साबित होते हैं।
एक अच्छे समाज के संवहन के लिए एक अच्छे नेता की आवश्यकता होती है। नेता, लोगों की उम्मीद होते हैं और नेताओं का काम इनकी उम्मीद पर खरे उतरना होता है। एक नेता में सेवा भाव अत्यन्त आवश्यक है। एक अच्छा सेवक ही अच्छा नेता हो सकता है।
धार्मिक गुरूओं की बात करें तो पहला प्रश्न यह खड़ा होता है कि इनका कार्य क्या है? इनका कार्य सभी धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करना। हर प्रकार से मानवता की रक्षा करना। लोगों को धर्म और ईश्वर की सच्ची वाणी से अवगत कराना। किसी भी पथभ्रष्ट व्यक्ति को न्यायोचित ढ़ंग से सही रास्ते पर लाना। सर्वधर्म के प्रति सम्मान की भावना का स्थापन करना। धर्मगुरू समाज के अभिन्न अंग हैं। इसके बताए गये रास्तों एवं उपदेशों का लोग अक्षरशः पालन करते हैं।
मीडिया को राष्ट्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। मीडिया का काम है निष्पक्ष आलोचना करना। किसी भी घटना की तह तक पहूंच कर उसकी सच्चाई से लोगों को रूबरू कराना। यदि ये अपने मार्ग से विचलित हो जायेगी तो सच्चाई के अभाव में समाज के गलत रास्ते पर जाने की संभावना बढ़ जायेगी, जिसकी कीमत प्रत्येक सामाजिक इकाई को चुकानी पड़ेगी।
समाज को चलाने के लिए सुसंगठित व्यवस्था का निर्माण किया जाता है, जिसे हम ‘संस्कार’ कहते हैं। सरकार का काम ऊँच-नीच, जाति-पाति, भेदभाव जैसी कुप्रथाओं पर प्रहार कर दूर करना। इसके साथ ही जो समाज के असक्षम लोग हैं उनके जीवन-यापन की व्यवस्था करना। रोजगार देना। किसी निर्बल पर अत्याचार न होने पाए। कोई दुखी न रहे। सभी के मानवाधिकार की रक्षा करना। इसके साथ ही समाज को संगठित करके एक सूत्र में बांधना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। समाज में आम जनता ही सबकुछ होती है। उपरोक्त सारी व्यवस्थाएं जनता द्वारा ही निर्मित है जिससे सभी कार्य व्यवस्थित ढ़ंग से हों। इसके लिए सभी को उपर्युक्त अधिकार दिये गये हैं। आम जनता से भी अपेक्षा की जाती है कि इस कार्य प्रणाली में बाधक बनने की बजाय उनकी सामर्थ्यानुसार मदद करनी चाहिए। किसी भी विभाग में अपने स्वार्थ के कारण हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ये पूरी व्यवस्था उन्हीं के लिए बनाई गयी है। विभाग के अधिकारियों पर भरोसा रखें। उनका सम्मान करें एवं उनके अच्छे कार्यों के लिए प्रोत्साहित करें।
इस समाज में हर व्यक्ति अपना योगदान दे सकता है। इसका कोई भी हिस्सा बेकार नहीं है। एक विद्यार्थी समाज के निर्माण में अपना योगदान किस तरह दे सकता है? विद्यार्थी का काम है अध्ययन करना, वह अपने कर्मों का भली भांति निर्वहन करे बस हो गया समाज निर्माण में योगदान।
स्वच्छ समाज की स्थापना में महापुरूषों का योगदानः-
स्वामी विवेकान्नदः- पश्चिमी दुनिया में भारतीय जीवन शैली की अमिट छाप छोड़ने वाले महान चिन्तक एवं आध्यात्मिक गुरू, जिनके सम्मान में भारत प्रतिवर्ष ’12 जनवरी’ को युवा दिवस के रूप में मनाता है, युवाओं के आदर्श का पैमाना बन चुके हैं। युवाओं का परम लक्ष्य स्वामी जी जैसा आदर्श पुरूष वनना है। स्वामी जी ने 25 वर्ष की उम्र तक वेद-पुराण, बाइबिल, कुरान, धम्मपद, तनख, गुरुग्रन्थ साहिब, दास कैपिटल, पूंजीवाद, अर्थशास्त्र, संगीत और दर्शन की तमाम तरह की पुस्तकों का विधिवत् अध्ययन कर लिया था। स्वामी विवेकानन्द अपने कर्मों में भरोसा रखते थे और दूसरों को भी इस बात की प्रेरणा देते थे। उनका मुख्य उद्देश्य था-
“उठो, जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको।“
इन्होंने 1893 में भारत की ओर से सनातन धर्म पर (शीर्षक ‘शून्य’) ओजपूर्ण व्याख्यान दिया था। अध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन का पूर् अमेरिका और यूरोप में प्रसार किया। शिकागो के भाषण की मुख्य शुरूआती पंक्ति “मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों” का लोगों पर खास असर पड़ा। उनके द्वारा युवाओं को दिये गये संदेशों के कुछ बिन्दु-
बस वही जीते हैं जो दूसरे के लिए जीते हैं।
बह्माण्ड की सारी शक्तियाँ पहले से ही हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं, और रोते हैं कि कितना अंधकार है।
जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।
जिस समय काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय पर उसे करना ही चाहिए, नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है।
यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं वे वास्तव में जीते हैं।
महात्मा गाँधीः- महात्मा गाँधी अहिंसा के पुजारी थे। बचपन से ही इन्होंने सदैव सत्य बोलने की कसम खाई थी और पूरे जीवन भर इन मंत्रों का पालन करते रहे। भारत की आजादी की लड़ाई में गाँधी जी का महत्वपूर्ण योगदान था। इस सम्बन्ध में एक पंक्ति बहुत प्रसिद्ध है- “दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढ़ाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।”
तत्कालीन भारतीय समाज में छुआ-छूत एक बड़ी समस्या थी। वर्ण व्यवस्था के शूद्र को लोग अछूत मानते थे। जिसके फलस्वरूप गांधी जी उन्हें ‘हरिजन’ अर्थात ‘भगवान के लोग’ का नाम देकर इस कुप्रथा का अंत किया।
नेल्सन मंडेलाः- नेल्सन मंडेला का पूरा नाम नेल्सन रोलीहली मंडेला था। मुख्य रूप से उन्हें रंगभेद का पहला अनुभव उन्हें छात्र जीवन में ही मिल गया था। उनके शरीर का रंग काला होने के कारण ही उन्हें कई तरह के कार्यों से वंचित रखा जाता था। उन्हें सिर्फ काले होने के कारण इस समाज में सर झुकाकर चलना पड़ता था। ऐसा न करने पर जेल जाने की नौबत तक आ जाती थी। जीवन के कड़वे अनुभव उनके व्यक्तित्व को और निखारते गये। उन्होंने जिस कालेज से स्नातक की शिक्षा पूरी की वह अश्वेतों के लिए एक विशेष कालेज था। अपने व्यक्तित्व के बल पर वो जल्दी ही कालेज में प्रसिद्ध हो गये। परिणामस्वरूप उन्हें कालेज से निकाल दिया गया। नेल्सन मंडेला के विचारों में गाँधी जी की छवि साफ दिखाई देती थी। संभवतः इसीलिए नेल्सन मंडेला और आन्दोलन एक दूसरे के पर्याय बन गये। पूरे देश में एक बड़े स्तर पर आन्दोलन खड़ा हुआ और तूफान के बाद की शान्ति निश्चित तौर पर एस नया सवेरा लेकर आयी जो मंडेला जी के पक्ष में था। इस आन्दोलन में उन्हें जेल भी हुई थी।
जेल जाने से पूर्व का उनका वक्तव्य- “अपने पूरे जीवन के दौरान मैंने अपना सबकुछ अफ्रीकी लोगों के संघर्ष में झोंक दिया। मैं श्वेत रंगभेद के खिलाफ लड़ा हूँ, और मैं अश्वेत रंगभेद के खिलाफ भी लड़ा हूँ । मैंने हमेशा एक मुक्त और लोकतान्त्रिक समाज का स्वप्न देखा है। जहाँ सभी लोग एक साथ पूरे सम्मान प्रेम और समान अवसर के साथ जीवन यापन कर पायेंगे। यही वो आदर्श, जो मेरे लिये जीवन की आशा बनी और में इसी को पाने के लिए जिन्दा हूँ। अगर कहीं जरूरत है कि मुझे इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मरना है तो इसके लिए भी पूरि तरह से तैयार हूँ।”
1990 में भारत सरकार की ओर से नेल्सन मंडेला को “भारत रत्न” से नवाजा गया। अपने उत्कृष्ट कार्य के लिए ही नेल्सन मंडेला और डी0 क्लार्क को संयुक्त रूप से नोबल पुरस्कार दिया गया। अपने लक्ष्य की प्राप्ति पर मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका को सम्बोधित करते हुए कहा कि “आखिरकार हमने अपने राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त कर ही लिया। हम अपने आप से वादा करे कि हम अपने सभी लोगों को आजादी देगें, गरीबों से, मुश्किलों से, तकलीफों से, लिंगभेद से और किसी भी तरह के शोषण से। कभी भी इस खूबसूरत धरती पर एक दूसरे के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जायेगा। स्वतंत्रता का लुत्फ उठाइये। ईश्वर अफ्रीका पर अपनी कृपा बनाये रखे।”
सचमुच ऐसे महापुरुष सदियों में एक बार जन्म लेते हैं जो पूरे मानव समाज को एक नई दिशा देते हैं। समाज के प्रति मेरा अपना एक अलग दृष्टिकोण है। जिसके जरिये मैं पाठकगण को एक नई सोंच से अवगत कराना चाहूंगा। इस सोच की शुरूआत विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं से करनी चाहिए। सिन्धुघाटी की सभ्यता, मेसोपोटोमिया की सभ्यता और बेबीलोन की सभ्यता में एक बात उभय थी। इस सभी सब्यताओं में मानव को अपने अस्तित्व को बनाये रखने का संकट था। इसकी लड़ाई प्रकृति से थी। वह आपदाओं, जानवरों और महामारियों आदि को मानव जाति के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करती थी। इन सभी संकटों से उबरने के लिए वो लोग एक साथ झुण्ड (समूह) बनाकर रहने की प्रथा की शुरूआत हुई। समाज शब्द की उत्पत्ति भले ही 20वीं सदी में हुई हो परन्तु इसकी नींव उसी समय पड़ चुकी थी। इस नवनिर्मित समाज का मुख्य उद्देश्य बाहरी खतरों से मानव जाति की रक्षा करना था। सिर्फ रक्षा करना ही नहीं अपितु सभी के साथ सुख-दुख में खड़ा रहना और अपनी जरूरतों को वस्तु विनिमय के द्वारा पूरा करना भी था। इसी छोटो से समाज में एक अद्भुत शक्ति का जन्म हुआ होगा। उसने मानव कल्याण की नई इबारत लिखी होगी। फिर भी लोग उसे ईश्वर तुल्य समझने लगे होंगे। शायद यहीं से ईश्वर का जन्म माना जा सकता है। जब इस छोटे से समाज का विस्तार हुआ तो उन्हें अपने जैसे ही और मनुष्यों का पता चला। चूंकि सभ्यताएं अलग थीं, पूज्य देव अलग थे, निवास स्थान भी अलग था। फिर मनुष्य अपने भाईयों से मिलकर खुश होने के बजाय “आदमी गलतियों का पुलिंदा है।” जैसी कहावत को चरितार्थ किया। सिर्फ अपनी शैली, सभ्यता, नियम-कानून, इष्ट देव की भिन्नता के अलावा खुद की समानता देखना भूल गये। यहां से शुरू हुई वर्चस्व की लड़ाई। इस लड़ाई के मुख्यतः तीन भाग बने। हिन्दू मुस्लिम और इसाई। वर्षों पुरानी दुश्मनी आज भी यथावत बनी हुई है।
यदि कोई इस सुझाव का पालन करे तो मैं बस इतना कहूँगा कि
‘मानवता ही एकमात्र धर्म है’। बस उदार तरीके से इसका पालन करें। जहाँ तक समाज में योगदान की बात है तो सभी व्यक्ति अपना-अपना कार्य पूरी निष्ठा करें। इससे ज्यादा योगदान की आवश्यकता नहीं होगी।
- पवन कुमार यादव